Atmadharma magazine - Ank 112
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २००९ : आत्मधर्म–११२ : ६९ :
अगर प्रतिकूळ निमित्तोथी मारो स्वभाव नाश पामी जाय के तेमां फेरफार थई जाय–एम मानता नथी, एटले
गमे तेवा अनुकूळ–प्रतिकूळ प्रसंगमां पण तेने अनंतानुंबंधी राग–द्वेष थतां ज नथी. ते जाणे छे के मारो आत्मा
त्रिकाळ चैतन्य ज्ञायकपणे नियत छे; मने मारा ज्ञायकस्वभावथी छोडाववानी कोई संयोगोनी तो ताकात नथी,
अने पर्यायना क्षणिक विकारमां पण एवी ताकात नथी के मने मारा स्वभावथी छोडावे. जेम माणसो नियम
ल्ये छे के अमारे अमुक चीज न खावी, तेम आत्माना नियतस्वभावनो एवो नियम छे के त्रणकाळमां कदी पण
पोताना चैतन्यस्वभावने छोडीने विभावपणे थवुं नहि. घडीए घडीए जे फरे तेने नियम न कहेवाय.
जुओ, आ शेनी वात चाले छे? आ भगवान आत्माना गाणां गवाय छे; आत्मामां जे धर्मो छे तेनो
आ महिमा गवाय छे. अज्ञानीने अनादिथी पोताना स्वभावनो महिमा रुचतो नथी ने परनो महिमा करे छे.
ज्यां ऊंचो हीरो के दागीनो वगेरेनां वखाण सांभळे त्यां तेनो महिमा आवी जाय छे, पण आत्मा पोते
त्रणलोकनो प्रकाशक चैतन्यहीरो छे तेना स्वभावनो महिमा गवाय छे ते सांभळवामां अज्ञानीने रुचि के
उत्साह आवतो नथी. अहीं तो आत्मानो स्वभाव समजवानी जेने जिज्ञासा जागी छे तेने आचार्यदेव समजावे
छे. आत्मानो शुद्धस्वभाव त्रिकाळ नियमित छे, तेना ज आधारे पर्यायमां शुद्धता प्रगटे छे, ए सिवाय क्यांय
बहारमांथी, विकारमांथी के क्षणिक पर्यायमांथी शुद्ध पर्याय आवती नथी. भगवान आत्माए पोतानी
पवित्रताना पिंडने कदी छोड्यो नथी. पर्यायमां जे शुद्धता प्रगटे छे ते तो पहेलांं न हती ने नवी प्रगटी, तेथी ते
अनियत छे, ने शुद्धस्वभाव धु्रवपणे सदा एवो ने एवो ज छे, तेथी ते नियत छे. पर्याय जे समये जे थवानी
होय ते ज थाय–एवा प्रकारे पर्यायनुं जे नियत छे तेनी आ नियतनयमां वात नथी पण अहीं तो द्रव्यना
नियतस्वभावनी वात छे; केमके नियतनी सामे पाछो अनियतस्वभाव पण कहेशे, तेमां पर्यायनी वात लेशे.
पर्यायोना नियतपणानी (क्रमबद्ध पर्यायनी) जे वात छे तेमां नियत अने अनियत एवा बे प्रकार नथी, तेमां
तो नियतनो एक ज प्रकार छे के बधी पर्यायो नियत ज छे, कोई पण पर्याय अनियत नथी. परंतु अत्यारे तो
आत्मवस्तुमां नियतस्वभाव अने अनियतस्वभाव एवा बंने धर्मो उतारवा छे, तेथी अहीं नियत एटले
द्रव्यनो एकरूप स्वभाव; पर्यायनो क्रम नियत छे पण पर्यायस्वभाव त्रिकाळ एकसरखो रहेनार नथी तेथी तेने
अहीं अनियतस्वभाव कह्यो छे. ज्यारे पर्यायनुं नियतपणुं (–क्रमबद्धपणुं) कहेवुं होय त्यारे तो विकार पण
नियत कहेवाय, ज्ञान नियत छे, ज्ञेयो नियत छे, विकार नियत छे, संयोग अने निमित्त पण नियत छे, जे होय
ते ज होय, बीजा न होय, जे समये जे थवानुं छे ते बधुं नियत ज छे. आवा नियतना निर्णयमां पण
ज्ञानस्वभावनी ज द्रष्टि थई जाय छे, अने वस्तुनो नियत–अनियत स्वभाव कह्यो तेना निर्णयमां पण
धु्रवस्वभावनी द्रष्टि थई जाय छे. द्रव्यना नियतस्वभावने जाणतां रागने अनियतधर्म तरीके जाणे छे एटले ते
रागमां स्वभावबुद्धि थती नथी, आ रीते आत्माना नियतस्वभावने जाणतां रागथी भेदज्ञान थई जाय छे.
राग थाय ते आत्मानो अनियतस्वभाव छे–एम जाणे अगर तो रागने ते समयनी पर्यायना नियत तरीके
जाणे तोपण ते बंनेमां, ‘आत्मानो नियतस्वभाव ते रागथी भिन्न छे’ एवुं भेदज्ञान थईने स्वभावद्रष्टि थाय
छे. जे जीव त्रिकाळी द्रव्यना नियत स्वभावने जाणे ते ज त्रणे काळनी पर्यायना नियतपणाने यथार्थ जाणे छे,
तेमज क्षणिक भावोना अनियतपणाने पण ते ज जाणे छे. पर्यायमां राग थयो ते आत्मानो पोतानो
अनियतधर्म छे एटले कर्मना उदयने लीधे राग थयो ए वात रहेती नथी. आत्मानो कायमी स्वभाव ते नियत
छे ने क्षणिकभाव ते अनियत छे. पूर्वे अनादि काळमां आत्मा नरक–निगोद वगेरे गमे ते पर्यायमां रह्यो छतां
पण आत्माना नियतधर्मे तेने पोताना शुद्धस्वभावथी एकरूप टकावी राख्यो छे. ज्यां ज्यां रखडयो त्यां बधेय
पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावने साथे ने साथे ज राखीने रखडयो छे. जो आवा अंर्तस्वभावनुं ज्ञान करे तो
वर्तमानमां अपूर्व धर्म थाय छे.
नियतनयनो विषय त्रिकाळ एकरूप रहेनारुं द्रव्य छे ने अनियतनयनो विषय पर्याय छे. ‘अनियत’ नो
अर्थ अक्रमबद्ध–अचोक्कस अथवा आडीअवळी पर्याय–एम न समजवो; परंतु पर्याय ते आत्मानो त्रिकाळ
एकरूप रहेनारो स्वभाव नथी पण पलटी जाय छे ते अपेक्षाए तेने अनियतधर्म समजवो. पर्याय तो
त्रणेकाळना दरेक