Atmadharma magazine - Ank 112
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ६८ : आत्मधर्म–११२ : महा : २००९ :
उष्ण ज होय, अग्नि उष्णता वगरनो होय एम कदी बने नहि, तेम चैतन्यपणुं ते आत्मानो नियतस्वभाव छे,
ते स्वभावथी ज्यारे जुओ त्यारे आत्मा एकरूप चैतन्यस्वरूपे जणाय छे. जोके पर्यायमां पण नियतपणुं एटले
के क्रमबद्धपणुं छे, जे समये जे पर्याय थवानी नियत छे ते ज थाय छे, तेना क्रममां फेरफार थतो नथी. –आवो
पर्यायनो नियतस्वभाव छे, परंतु अत्यारे अहीं तेनी वात नथी; अहीं तो निमित्तनी अपेक्षा वगरनो
आत्मानो जे त्रिकाळ एकरूप रहेनार स्वाभाविक धर्म छे तेनुं नाम नियतस्वभाव छे अने ते नियतनयनो
विषय छे.
जेम अग्निनो उष्ण स्वभाव छे ते नियत ज छे, निश्चित ज छे, अग्नि सदा उष्ण ज होय, तेम आत्मानो
चैतन्यस्वभाव नियत–निश्चित–सदा एकरूप छे; नियतस्वभावथी आत्मा अनादिअनंत एकरूप नियत
परमपारिणामिकस्वभावे ज भासे छे, बंध–मोक्षना भेद पण तेनामां देखाता नथी. बंध अने मोक्षनी पर्यायो ते
नियत एटले के कायमी एकरूप नथी पण अनियत छे. उदय–उपशम–क्षयोपशम के क्षायक ए चारे भावो पण
अनियत छे, परमपारिणामिकभाव ते नियत छे. आत्मानो सहज निरपेक्ष शुद्धस्वभाव ज नियत छे. नियतनय
आत्माने सदा ज्ञायकस्वभावे ज देखे छे. आत्मानो ज्ञायकस्वभाव छे ते नियत–नक्की थयेलो अनादिअनंत
स्वभाव छे, तेमां कदी फेर पडे नहि. आत्माना आवा स्वभावने जाणनारो जीव पर्यायना अनेक प्रकारोने पण
जाणतो होवा छतां तेने पर्यायबुद्धि थती नथी. आत्माना नियत एकरूप धु्रव स्वभावने जाणतां तेनो ज आश्रय
थाय छे, ए सिवाय कोई निमित्त, विकल्प के पर्यायना आश्रयनी मान्यता रहेती नथी. आ रीते दरेक नयथी
शुद्ध आत्मा ज सधाय छे. जे जीव अंतरंगमां शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने नथी देखतो तेने एकपण साचो नय
होतो नथी.
जेम कोई कहे के–एवो नियम बांधो के जे कदी फरे नहि, तेम आ नियतनय आत्माना स्वभावनो एवो
नियम बांधे छे के जे कदी फरे नहि. आत्मानो नियम शुं छे? –के पोताना शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावे त्रिकाळ रहेवुं ते
ज तेनो नियम छे. पोताना ज्ञानानंदस्वभावने ते कदी छोडतो नथी. जे आत्मस्वभावना आवा नियमने जाणे
ते नियमथी मुक्ति पामे.
‘जुओ, आ आत्मस्वभावना गाणां! संतोना अंतरअनुभवमांथी आ रणकार ऊठ्यो छे के अरे जीव!
तें तारा नियत परमानंद स्वभावने कदी छोड्यो नथी, तारो सहज ज्ञान ने आनंदस्वभाव तारामां नियत छे,
तुं सदाय अनाकुळ शांतरसनो कुंड छो; जो अग्नि कदी पोतानी उष्णताने छोडे तो भगवान आत्मा पोताना
पवित्र चैतन्यस्वभावने छोडे! पण एम कदी बनतुं नथी. केवळज्ञान अने परम आनंद प्रगटवाना सामर्थ्यथी
सदाय भरेलो एवो तारो नियत स्वभाव छे, ते स्वभावना अवलंबनथी ज धर्म प्रगटे छे, ए सिवाय क्यांय
बहारथी धर्म आवतो नथी. एकवार अंतरमां तारा आवा नियतस्वभावने देख.
नियतनयथी जोतां पवित्रतानो पिंड आत्मा पोते चैतन्यस्वभावे नियत जणाय छे–एवो तेनो धर्म छे.
आ धर्म आत्माने सदाय पोताना परमशुद्ध अमृतरसमां झीली राखे छे, तेना शांत उपशमरसमां स्थिर–नियत
राखे छे नरकमां के स्वर्गमां, अज्ञानदशा वखते के साधकदशा वखते, निगोदमां हतो त्यारे के सिद्धमां हशे त्यारे,
–कदी पण ते पोताना स्वभावने बदलीने बीजी रीते थई जतो नथी–एवो आत्मानो नियतस्वभाव छे. जे
आवा नियतस्वभावने जाणे तेने पर्यायमां पण एवुं ज नियत होय के अल्पकाळे मुक्ति पामे.
एक बाजु जोतां अनुकूळतामां राग ने वळी ते पलटीने प्रतिकूळतामां द्वेष–एम अनियतस्वभावे
आत्मा लक्षमां आवे छे, अने बीजी बाजुथी जोतां त्रणलोकनी गमे तेवी प्रतिकूळता आवी पडे तोपण आत्मा
पोताना स्वभावने कदी छोडतो नथी–एवो तेनो नियतस्वभाव छे. –आम बंने स्वभावथी आत्माने जे जाणे
तेने धु्रव एकरूप स्वभावनो महिमा आवीने तेमां अंर्तवलण थया विना रहे नहि.
जेम अग्निमां उष्णता न होय–एम कदी न बने, तेम आत्मानो ज्ञानानंदस्वभाव अनादिअनंत एकरूप
छे तेनुं नाम नियतस्वभाव छे. अग्निनो स्वभाव एवो नियत छे के तेमां उष्णता होय ज, तेम आत्मामां एवो
नियतधर्म छे के पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावथी ते कदी जुदो न होय. आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव अनंत
सहजानंदनी मूर्ति छे. ते स्वभावने जोनार ज्ञानी जीव, कोई अनुकूळ निमित्तोथी मारो स्वभाव नवो उत्पन्न
थाय