ज्ञाताद्रष्टास्वभावनी सन्मुखताना पुरुषार्थ सहित ज्ञानीनो सम्यक्नियतवाद छे. अने प्रवचनसारमां जे
नियतनयनी वात छे ते बधा जीवोनो त्रिकाळ एकरूप शुद्ध चिदानंदस्वभाव छे तेनी वात छे. आत्मा पोताना
असली चैतन्यस्वभावने कदी न छोडे एवो तेनो नियतस्वभाव छे. जे जीव आवा नियतस्वभावने जाणे तेने
विकार उपर बुद्धि न रहे, केमके विकार ते आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव नथी तेथी आ नियतमां तेनो स्वीकार
नथी. आ त्रीजा बोलनी अपेक्षाए विकार ते आत्मानो ‘अनियतभाव’ छे, अने बीजा बोलनी अपेक्षाए तो
विकारभाव पण ‘नियत’ छे केमके ते समये ते ज पर्यायनो क्रम नियत छे.
क्यारेक नथी होतो, तेम ज ते सदा एकसरखो पण नथी रहेतो–माटे तेने अनियत कह्यो छे, पण पर्यायना
क्रमनी अपेक्षाए तो ते पण नियत ज छे. वस्तुस्वभाव त्रणेकाळ व्यवस्थित परिणमी रह्यो छे, तेनी त्रणेकाळनी
पर्यायोमां एटली नियमितता छे के तेना क्रमनो भंग करवा अनंता तीर्थंकरो पण समर्थ नथी. पर्यायोनुं आवुं
व्यवस्थितपणुं नक्की करनार जीव पोते त्रिकाळी द्रव्यनी सामे जोईने ते नक्की करे छे एटले ते पोते स्वभाव
तरफ ढळेलो ने मोक्षपंथे पडेलो साधक थई गयो छे; क्रमरूप पर्यायो एक साथे होती नथी एटले ते क्रमनी प्रतीत
करनारनी द्रष्टि अक्रमरूप द्रव्यस्वभाव उपर होय छे, ने तेमां ज मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ आवी जाय छे.
गयुं नथी ने केवळज्ञान थतां मारा स्वभावमां कांई वधी जतुं नथी; पर्यायमां विकार हो के निर्विकारपणुं हो,
पण मारा नियतस्वभावे तो हुं सदा एकरूप छुं. आम द्रव्यअपेक्षाए अनियतधर्म पण रहेलो छे तेने पण धर्मी
जाणे छे, तेनुं वर्णन हवेना बोलमां करशे.
चैतन्यस्वरूपे ज रहे छे. जेम अग्नि कदी पोतानी उष्णताथी छूटो न पडे एवो तेना स्वभावनो नियम छे तेम
आत्माना स्वभावनो एवो नियम छे के पोताना शुद्ध चैतन्यपणाथी ते कदी छूटो पडे नहि.
पुरुषार्थ सहित सम्यग्द्रष्टिना सम्यक् नियतवादनुं वर्णन छे. जे पदार्थनी जे समये जे प्रमाणे जे अवस्था थवानुं
सर्वज्ञदेवना ज्ञानमां प्रतिभास्युं छे ते पदार्थनी ते समये ते प्रमाणे ते ज अवस्था नियमथी थाय छे, कोई ईन्द्र
नरेन्द्र के जिनेन्द्र पण तेमां फेरफार करी शकता नथी–आवुं वस्तुस्वरूप समजनार सम्यग्द्रष्टिने भेगी एवी पण
प्रतीत छे के हुं ज्ञाता छुं. एटले परथी उदासीन थईने तेनो ज्ञाता रह्यो, ने पोतानी पर्यायनो आधार द्रव्य छे ते
द्रव्य तरफ वळ्यो, द्रव्यद्रष्टिथी तेने क्रमे क्रमे पर्यायनी शुद्धता थवा मांडे छे. –आवो आ सम्यक् नियतवाद छे.
त्यां त्यां ते ते आचरे आत्मार्थी जन एह.