Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ९० : आत्मधर्म २४७९: फागण:
आत्मद्रव्यनो अनुभव थतो नथी. कोई कहे के व्यवहारने कारणे आत्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी रचना
थई,–तो एम नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी रचनामां आत्माना स्वभाव सिवाय बीजुं कोई कारण छे ज
नहि. आत्मा पोताना कार्यमां कोई बीजानी सहाय लेतो ज नथी अने पोते कोई बीजानुं कारण थतो नथी–
आवी स्वयंसिद्ध अकार्यकारणशक्ति तेनामां त्रिकाळ छे. भले लाखो वर्ष भगवाननी भक्ति करे, पण परने
लीधे आत्मामां कार्य थाय–एवो गुण आत्मामां नथी, तेम ज ते भक्तिनो राग कारण थईने तेनाथी
सम्यग्दर्शनरूप कार्य प्रगटे एम पण बनतुं नथी.
आत्मानुं कार्य बीजाथी थतुं नथी ने आत्मा कोई बीजानी क्रिया करतो नथी. पर जीव बच्चो त्यां तेने
बचवामां आत्मा कारण नथी, शरीर हालवामां के बोलवामां आत्मा कारण नथी, पुण्य–पापना परिणाम थाय
तेमां पण आत्मद्रव्य कारण नथी–आवुं आत्मानी अकार्यकारणत्वशक्तिनुं सामर्थ्य छे. आवो स्वभाव समजतां
पर उपर द्रष्टि रहेती नथी. पण द्रव्यस्वभाव उपर द्रष्टि जाय छे. जड कर्म थाय तेनुं कारण आत्मा नथी. क्षणिक
विकारपरिणाम थाय तेना कारणपणे आखुं द्रव्य नथी एटले आवा द्रव्यनी सन्मुख जोनार जीवने क्षणिक
विकारनी कर्तृत्वबुद्धि रहेती नथी. त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय करतां विकारनी उत्पत्ति थती नथी माटे त्रिकाळी द्रव्य
विकारनुं कारण नथी. त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी ज उत्पत्ति थाय छे तेथी ते
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनुं कारण थाय एवो द्रव्यनो स्वभाव छे.
व्यवहाररत्नत्रयथी आत्मा नथी बनतो. जो व्यवहाररत्नत्रयथी आत्मा बनतो होय तो
व्यवहाररत्नत्रयनो नाश थतां आत्मानो पण नाश थई जाय! वळी, द्रव्यना आश्रये जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते
तो द्रव्यमां अभेद छे एटले व्यवहाररत्नत्रयथी जेम द्रव्य नथी बनतुं तेम निर्मळपर्याय पण तेनाथी बनती
नथी. पर्याय द्रव्यमांथी आवे के परमांथी? पर्याय तो द्रव्यमांथी ज आवे छे एटले पर्यायनो पिता द्रव्य छे. द्रव्य
ज पोतानी पर्यायनुं उत्पादक छे तेने बदले बीजाने उत्पादक मानवो ते कलंक छे. जेम पुत्रनो जे पिता होय तेने
बदले बीजाने पिता मनावे तो ते लोकव्यवहारमां कलंक छे, तेम निर्मळपर्यायरूप प्रजानो पिता द्रव्य छे, द्रव्यना
आश्रये ते पर्याय प्रगटी छे तेने बदले बीजाने तेनुं कारण मनाववुं ते कलंक छे. पुण्य–पापमांथी, निमित्तमांथी के
व्यवहारमांथी आत्मानुं कांई कार्य थतु नथी, अने आत्मानो स्वभाव ते पुण्य–पापनो के व्यवहारनो कर्ता नथी.
तो पछी आत्मा देशनुं कांई करे के शरीरनुं कांई करे के पैसा वगेरे लेवा–देवानी क्रिया करे–ए वात तो छे ज नहि.
जडनी के परनी क्रिया तो आत्माथी नथी थई, परंतु अहीं तो कहे छे के पुण्य–पाप आत्माथी थया एम
पण नथी. पर्यायद्रष्टिमां पुण्य–पाप थाय छे, पण त्रिकाळी द्रष्टिथी जोतां आत्मामां पुण्य–पाप छे ज नहि, माटे
आत्मा तेनो कर्ता नथी. पर्यायबुद्धिवाळो जीव आ वात यथार्थपणे मानी शके नहि. आत्मा तो ज्ञान–दर्शन–सुख
वगेरे अनंत स्वभावनी मूर्ति छे, तेनामां एवो कोई स्वभाव नथी के जे विकारनुं कारण थाय!–अथवा परना
कार्यने करे!
आ आत्मा होय तो जगतनुं कार्य थाय–एम नथी, अने जगतना पदार्थो होय तेने कारणे आत्मानुं कार्य
थाय छे–एम पण नथी. आत्माना आवा स्वभावने जे न ओळखे ते जीव आत्मानो बेखबरो एटले के भान
विनानो छे. सर्वज्ञ भगवाने आत्मामां एवो कोई गुण नथी जोयो के शरीर–मन–वाणी वगेरे सरखां होय तो
आत्मामां धर्मनुं कार्य थाय; तेम ज आत्माना कारणे शरीर–मन–वाणी सरखां रहे एवो पण कोई गुण
भगवाने जोयो नथी. तो हे मूढ! तुं वळी सर्वज्ञथी वधारे डाह्यो क्यांथी नीकळ्‌यो! आत्माथी परनुं कार्य कदी पण
थतुं ज नथी तो मफतनो परनुं करवानुं तुं केम माने छे? जो शरीर–मन–वाणी वगेरेनां कार्यो आत्माथी थतां
होय तो तेमनाथी आत्मा कदी जुदो पडे नहि अने पोतानुं स्वकार्य करवा ते कदी नवरो थाय नहि. ए ज प्रमाणे
द्रव्य पोते कारण थईने जो पुण्य–पापने रचे तो द्रव्यमांथी पुण्य–पाप कदी जुदा ज न पडे, एटले वीतरागता तो
न थाय परंतु भेदज्ञान थवानो अवसर पण रहे नहि. माटे द्रव्य पोते विकारनुं कारण नथी.–आम समजतां
स्वभाव अने विकारनुं भेदज्ञान थाय छे अने स्वभावना अवलंबने विकार टळीने वीतरागता प्रगटे छे.