Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ९२ : आत्मधर्म २४७९: फागण:
अज्ञानी जीवने अनादिनो मोह छे तेथी आवी हितकारी सत्य वात तेने रुचती नथी अने ऊलटो सामे
बाखोडियां भरे छे. भाई! तारा अनंतगुणो त्रिकाळ तारी साथे रहेनारा छे, ए सिवाय पुण्य–पाप के शरीर–
कुटुंब वगेरे कोई तारी साथे नहि आवे; माटे पर मारुं कारण ने हुं परनो कारण–एवी बुद्धि छोड. पर साथे
कार्य–कारणपणुं मानवुं ते मिथ्यात्व छे. अहीं तो कहे छे के ते मिथ्यामान्यतानुं कारण पण त्रिकाळी आत्मद्रव्य
नथी, परंतु जे आम समजे तेने पर्यायमां मिथ्यात्व रहे ज नहि.
वळी उपादान–निमित्तनी वात सांभळीने केटलाक एम बोले छे के भाई, जगतनां कार्य तो तेना
उपादानथी थाय, आपणे तो फक्त तेना निमित्त छीए. पण अहीं तो कहे छे के अरे भाई! तारी द्रष्टिमांथी
एकवार पर साथेनो बधोय संबंध तोडी नांख. निमित्त थवा उपर जेनी द्रष्टि छे तेनी द्रष्टि पर उपर छे; जेनी
द्रष्टि अनंतगुणना पिंड आत्मा उपर छे तेने पर उपर द्रष्टि ज नथी, एटले ‘हुं परने निमित्त छुं’ ए वात तेनी
द्रष्टिमां क्यां रही? परनो निमित्त थवा उपर जेनी द्रष्टि छे तेने स्वसन्मुखद्रष्टि नथी पण पर उपर ज द्रष्टि छे.
स्वसन्मुखद्रष्टिमां तो आत्माने पर साथे निमित्त–नैमित्तिकसंबंध पण नथी. आवी द्रष्टि प्रगट्या वगर पर्यायना
निमित्त–नैमित्तिकसंबंधनुं यथार्थ ज्ञान थाय नहि. त्रिकाळी आत्मा तो परनुं के राग–द्वेषनुं निमित्तकारण पण
नथी, जो त्रिकाळी आत्मा रागादिनुं निमित्तकारण होय तो ते निमित्तपणुं कदी छूटे नहि, सिद्धमां पण राग–द्वेष
थया करे. माटे त्रिकाळी स्वभाव राग–द्वेषादिनुं निमित्तकारण पण नथी. पर्यायनुं अशुद्ध उपादान ते राग–
द्वेषादिनुं कारण छे, पण ते एक समय पूरतुं छे, तेनी अहीं वात नथी; अहीं तो आत्माना त्रिकाळी स्वभावनी
वात चाले छे. पुण्य–पाप आत्माना अशुद्ध उपादानथी थाय ने कर्म तेमां निमित्त छे–ए बंने वात परमां जाय
छे, आत्माना शुद्धस्वभावमां ते कांई छे नहि.
जुओ, आ तो द्रव्यद्रष्टिना अजरप्यालानी वात छे. आवी द्रष्टि पचाववा माटे अंतरमां जीवनी केटली
पात्रता होय! सद्गुरु प्रत्ये विनय–बहुमान, वैराग्य वगेरे लायकात तेनामां होय ज. गमे तेम स्वच्छंदपूर्वक
वर्ते अने आ वात समजाई जाय–एम बने नहि. ज्ञानप्रधान वर्णन चालतुं होय त्यारे ए बधी वात विस्तारथी
आवे, अत्यारे दर्शनप्रधान वर्णन चाले छे.
आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के :
‘सर्व जीव छे सिद्धसम जे समजे ते थाय’ आमां आत्माना स्वभावनी अने ते समजवानी वात करी.
पण ते समजनार जीवने निमित्त केवां होय? के–‘सद्गुरुआज्ञा जिनदशा निमित्तकारणमांय.’ सर्वज्ञ वीतराग
जिनदशा केवी होय तेनो विचार अने सद्गुरुनी आज्ञा ते आत्मानुं स्वरूप समजवामां निमित्तकारण छे, कुदेव–
कुगुरुने मानतो होय अने आत्मानुं स्वरूप समजी जाय–एम बने नहि, ते माटे आ वात करी छे. द्रव्यद्रष्टिना
विषयमां एकलो अभेद आत्मा ज छे, तेमां निमित्तनी वात न आवे. आवी अभेदद्रष्टिथी ज विकल्प तूटीने
निर्विकल्प आनंदनो अनुभव थाय छे. आत्मा अकारणस्वभाव छे, तेना अनुभव माटे बीजुं कोई कारण छे ज
नहि. देव–गुरुनो विचार करे अथवा आत्मा छे–ते नित्य छे एवा प्रकारे भेदथी आत्माना विचार करे–ते पण
खरेखर आत्माना अनुभवनुं कारण नथी. पोताना अनुभवमां व्यवहारनी के परनी मदद लेवी पडे एवो
आत्मानो स्वभाव ज नथी. तेम ज आत्मा परनुं कारण थाय एवो पण तेनो स्वभाव नथी.
प्रश्न:– शुं आत्मा वगर बोलाय छे? मडदां केम नथी बोलतां? आत्मा होय तो भाषा बोलाय छे, माटे
भाषानुं कारण आत्मा छे के नहि?
उत्तर:– आत्मानी हाजरी होय ने भाषा बोलाय ते वखते पण ते भाषानुं कारण आत्मा नथी पण जड
परमाणुना कारणे भाषा थई छे. जो भाषानुं कारण आत्मा होय तो ज्यांसुधी आत्मा होय त्यां सुधी भाषा
थया ज करे! शरीर बराबर रहे ते जडनी क्रिया छे, आत्माने कारणे नहि; सर्प करडे अने घेन चडे त्यां आत्मा
होवा छतां डोक केम पडी जाय छे? ते जडनुं कार्य छे, आत्मा तेनो अकारण छे; वळी शरीर सारुं निरोग होय,
वज्रर्षभनाराच संहनन होय, परोढियानो ब्राह्ममुहूर्तनो काळ होय, निर्जन जंगल क्षेत्र होय, सारा देव–गुरु
नजीक बिराजता होय–ए बधा बाह्मपदार्थो कारण थईने आत्मानुं कांई कार्य करी द्ये एम जे माने छे तेने
आत्माना अकार्यस्वभावनी खबर नथी, कोई अन्य कारणोथी आत्मानुं कार्य थाय एवो आत्मानो स्वभाव
नथी. जो परनुं कारण–कार्य थाय तो आत्मा एकद्रव्यस्वरूप न रहेतां अनेकद्रव्यस्वरूप थई जाय. पण आत्मा तो
परनुं कारण नथी ने परनुं कार्य पण नथी–एवा एकद्रव्यस्वरूप छे, एवो तेनो अकार्यकारणस्वभाव छे. आवा
स्वभावने द्रष्टिमां लेतां मुक्तिरूपी कार्य प्रगटी जाय छे.