Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: फागण: २४७९ आत्मधर्म : ९५ :
‘आत्मा कोण छे
ने कई रीते पमाय?’
[१५]
श्री प्रवचनसारना परिशिष्टमां ४७ नयोद्वारा आत्मद्रव्यनुं
वर्णन कर्युं छे, तेना उपर पू. गुरुदेवश्रीनां
विशिष्ट अपूर्व प्रवचनोनो सार.
(अंक ११२ थी चालु)
• जिज्ञासु शिष्य पूछे छे : ‘प्रभो! आत्मा कोण छे ने कई रीते प्राप्त कराय छे?’
• श्री आचार्यदेव उत्तर आपे छे के : आत्मा अनंत धर्मोवाळुं एक द्रव्य छे अने
अनंत नयात्मक श्रुतज्ञानप्रमाणपूर्वक स्वानुभव वडे ते जणाय छे.
• ते आत्मद्रव्यनुं ४७ नयोथी वर्णन कर्युं छे, तेमांथी २६ नयो उपरनां प्रवचनो
अत्यारसुधीमां आवी गया छे, त्यारपछी आगळ अहीं आपवामां आवे छे.
[२७] अनियतिनये आत्मानुं वर्णन
नियतिनयथी आत्माना एकरूप द्रव्यस्वभावनुं वर्णन कर्युं हवे अनियतिनयथी पर्यायनी वात करे छे.
आत्मद्रव्य अनियतिनये अनियतस्वभावे भासे छे, जेम पाणीमां उष्णता नियमित नथी पण अग्निना निमित्ते
क्यारेक तेमां उष्णता थाय छे तेम अनियतनयथी आत्मा रागादि अनियतस्वभावपणे जणाय छे.
पाणीनो कायमी स्वभाव ठंडो छे ते नियत छे, ने उष्णता तेना ठंडा स्वभावथी विपरीत दशा छे, ते
उष्णता पाणीमां कायम रहेनार नथी तेथी अनियत छे; तेम आत्मानी अवस्थामां रागादि विकारी भावो थाय
छे ते कायमी रहेनार नथी पण क्षणिक छे माटे ते अनियत छे. आवुं अनियतपणुं ते पण आत्मानो एक धर्म
छे. परंतु ‘थवानुं न हतुं ने थयुं’–एवो अहीं अनियतनो अर्थ नथी. रागादिने अनियत कह्या तेथी कांई
पर्यायनो क्रम तूटी जाय छे–एम नथी, जे रागादि थया ते कांई पर्यायनो क्रम तूटीने थया नथी. पर्यायना क्रमनी
अपेक्षाए तो रागादि पण नियतक्रममां ज छे, परंतु रागादि अशुद्धभाव छे ते आत्मानो कायमी स्वभाव नथी
माटे तेने अनियत स्वभाव कह्यो छे. अनियतनयथी जुओ तो तेमां पण कांई क्रमबद्ध पर्यायनो फेरफार थवानुं
नथी आवतुं, पर्यायनो क्रम तो नियत ज छे.
गोमट्टसारमां नियतवादीने मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे ते तो जुदी वात छे ने अहीं जुदी वात छे. गोमट्टसारमां
जे नियतवादीने मिथ्याद्रष्टि कह्यो छे ते तो नियतना नामे मात्र स्वच्छंद सेवे छे, पण नियत साथे पोतानो
ज्ञातास्वभाव छे तेने ते जाणतो नथी, सर्वज्ञने मानतो नथी, परसन्मुख ज रुचि राखे छे पण ज्ञानस्वभावनी
रुचि करतो नथी, स्वभावनी सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानना पुरुषार्थने ते स्वीकारतो नथी, पोतानी निर्मळ पर्यायरूप
स्वकाळने ते जाणतो नथी, तेम ज निमित्तमां केटला कर्मोनो अभाव थयो तेने पण ते समजतो नथी.–ए प्रमाणे
कोई जातना मेळ वगर मात्र नियतनी वातो करीने स्वच्छंदी थाय छे; नियतनी साथेना बीजा समवायोने ते
मानतो नथी ने श्रद्धाज्ञाननो सम्यक्पुरुषार्थ प्रगट करतो नथी तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. परंतु सम्यग्द्रष्टि तो
नियतना निर्णयनी साथेसाथे सर्वज्ञनो पण निर्णय करे छे अने ‘हुं ज्ञातास्वभाव छुं’ एम पण स्वसन्मुख
थईने प्रतीति करे छे एटले नियतना निर्णयमां तेने सम्यक्श्रद्धा–ज्ञाननो पुरुषार्थ पण भेगो ज छे, ते वखते
निर्मळपर्यायरूप स्वकाळ छे तथा निमित्तमां