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संबंधमां मिथ्याद्रष्टि अने सम्यग्द्रष्टिनो आ मोटो तफावत छे ते अज्ञानीओ समजी शकता नथी एटले तेमने भ्रमथी
बंनेमां समानता लागे छे, पण खरेखर तो ते बंनेमां आकाश पाताळ जेटलु अंतर छे.
अमारा पुरुषार्थथी कांई फेरफार न थाय?’ एटले एणे ज्ञाता नथी रहेवुं पण फेरफार करवो छे,–ए बुद्धि ज मिथ्यात्व
छे. अज्ञानी माने छे के वस्तुनी पर्याय नियत नथी एटले के निश्चित नथी, तेमां अमारी मरजी प्रमाणे अमे फेरफार
करी दईए;–तेनी आ मान्यता जूठी छे केम के वस्तुनी पर्यायोमां एवुं अनियतपणुं नथी के ते आघी पाछी थाय!
अहीं आत्मानो अनियतधर्म वर्णवे छे तेमां तो जुदी वात छे, कांई पर्यायना क्रममां फेरफार करवानी वात तेमां नथी.
द्रव्यस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां आत्मा शुद्धपणे देखाय छे ने पर्याय– द्रष्टिथी जोतां आत्मा अशुद्ध देखाय छे, ते
अशुद्धपणुं आत्मानो अनियत स्वभाव छे, क्षणिक अशुद्धताने पण आत्मा पोते पोतानी पर्यायमां धारी राखे छे.
आत्मा एकांत शुद्ध छे तेनी पर्यायमां पण विभाव नथी–एम जे माने तेणे आत्माना अनियतधर्मने जाण्यो
आत्मानी ज अवस्थामां थाय छे एटले आत्मानो ज अनियत धर्म छे. तत्त्वार्थसूत्रमां पण औदयिकभावने य
आत्मानुं स्वतत्त्व कह्युं छे. रागादिभावो आत्मानो अनियत धर्म छे ते कांई कर्मने वश नथी; आत्मानो आ धर्म
कांई जड कर्मने लीधे नथी.
अनियत कह्यो छे चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा त्रिकाळ छे, तेनी अवस्थामां विकार अने संसार छे ते अनियतस्वभावे
छे, एक समयपूरतो अचोक्कस छे माटे आत्मामां ते कायम रहेशे नहि, ने शुद्धस्वभाव तो कायम एवो ने एवो
रहेनार छे; ते स्वभावनो महिमा करीने तेनी सन्मुख रहेतां पर्यायमांथी अनियत एवो संसार टळी जशे माटे हे जीव!
ज्ञायक आनंदकंद स्वभावे हुं नियत छुं ने अवस्थानो विकार ते अनियत छे–एम प्रतीत करीने स्वभावसन्मुख था.
विकार आत्मामां कायमी रहेवावाळो भाव नथी माटे पर्यायमां विकार गमे तेटलो हो तेनाथी मूंझा नहि, पण ते
विकारनी तुच्छता जाण अने कायमी शुद्ध नियतस्वभावनो महिमा लावीने तेनी सन्मुख द्रष्टि करीने तेमां ठर.–एम
करवाथी, जेवो कायमी शुद्धस्वभाव छे तेवी शुद्धता पर्यायमां प्रगटी जशे अने विकार टळी जशे. आत्माना
शुद्धस्वभावना आश्रये अनियत एवो विकार टळी जवा योग्य छे, पण पर्यायना क्षणिक विकारथी कांई आत्माना
नियतस्वभावनो नाश थई जतो नथी. रागादि विकार तो क्षणिक अनियत नाशवंत छे ते शरणभूत थई शकता नथी
अने द्रव्यनो नियतस्वभाव तो सदा शुद्ध छे तेना शरणे जीवने शांति अने कल्याण थाय छे. आ प्रमाणे नियतस्वभाव
अने अनियतस्वभाव ए बंनेथी आत्माने जाणीने तेना धु्रव स्वभावनो आश्रय करवो ते प्रयोजन छे.
होवा छतां ते अनियत छे एटले पाणीनी उष्णतानी जेम ते टळी जाय छे. अग्निनी उष्णता ते तेनो नियतस्वभाव छे
एटले ते टळे नहि पण पाणीनी उष्णता ते अनियत छे एटले ते टळी जाय छे; तेम आत्मानो शुद्धचैतन्यमय
द्रव्यस्वभाव तो नियत छे तेनो कदी नाश थतो नथी, ने पर्यायनो विकार अनियतस्वभावे छे तेथी ते टळी जाय छे. मा