Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ९८ : आत्मधर्म २४७९: फागण:
पाणीने एकांत ठंडुं मानीने पीवा मांडे तो शुं थाय?–मोढुं दाझी जाय! तेम चैतन्यभगवान आत्मा उपशमरसनो
समुद्र नियतस्वभावे शुद्ध एकरूप होवा छतां तेनी पर्यायमां जे रागादि छे ते पण तेनो एक समयनो अनियत
स्वभाव छे. पोतानी पर्यायमां ते रागादि छे एम जो न जाणे अने आत्माने सर्वथा शुद्ध माने तो तेने शुद्धतानो
तो अनुभव नहि थाय पण एकला रागादिनी आकुळतानो ज अनुभव थशे. आत्मानी पर्यायमां जे क्षणिक
विकार थाय छे ते तेनो अनियत स्वभाव छे अने ते ‘अनियतनय’नो विषय छे, ते आत्मानो कायमी
स्वाभाव नथी. परंतु जो ते विकार एक समयपूरतो पण पर्यायमां न थतो होय तो तेने टाळीने स्वभावमां
एकाग्र थवानो प्रयत्न करवानुं रहेतुं नथी. एटले के मोक्षमार्ग ज रहेतो नथी माटे द्रव्य अने पर्याय बंनेनुं
यथार्थ ज्ञान होय तो ज मोक्षमार्ग साधी शकाय छे.
वस्तुमां नियत अनियत बंने धर्मो छे. वस्तुनो जे सदा एकरूप रहेनारो स्वभाव छे ते नियत छे, अने
वस्तुनो जे क्षणिक स्वभाव छे ते अनियत छे. परंतु क्रमबद्धपर्यायमां जे पर्याय थवानी होय तेने बदले आडी–
अवळी थईने अनियत थई जाय–एम अहीं अनियतनो अर्थ नथी. जेम द्रव्यो नियत छे, तेना जड चेतन वगेरे
गुणो नियत छे, तेम तेनी समय समयनी पर्यायो पण नियत छे. पर्यायनो क्रम कांई अनियत नथी, जे समये
जे पर्याय थवानुं नियत छे ते समये ते ज पर्याय नियमथी थशे. सर्वज्ञ तेने जाणे छे. सर्वज्ञनुं ज्ञान अन्यथा थतुं
नथी ने वस्तुनी पर्यायनो क्रम पण तूटतो नथी. अहो, आ निर्णयमां वस्तुस्वभावनो निर्णय आवी जाय छे
अने पुरुषार्थनुं वलण पर तरफथी खसीने पोताना ज्ञानस्वभाव तरफ वळी जाय छे. आ अंर्तद्रष्टिनी वात छे;
घणा लोको पोतानी कल्पित द्रष्टि प्रमाणे शास्त्रो वांची जाय छे पण गुरुगमना अभावे अंर्तद्रष्टिनुं आ रहस्य
समजी शकता नथी. कोई तो एम कहे छे के ‘द्रव्योनी संख्या नियत छे, तेना चेतन के अचेतन गुणो नियत छे
तथा दरेक क्षणे तेनुं कोई ने कोई प्रकारनुं परिणमन थशे ते पण नियत छे, परंतु अमुक समयमां अमुक ज
परिणमन थशे–ए वात नियत नथी, जेवा संयोग आवशे तेवी पर्याय थशे.’ जुओ, आम कहेनारने
वस्तुस्वरूपनी कांई खबर नथी ने सर्वज्ञनी पण श्रद्धा नथी; आ वात आगळ घणीवार विस्तारथी
कहेवाई गई छे. ‘द्रव्यनी शक्ति तो नियत छे पण परिणमन क्यारे केवुं थशे ते अनियत छे–आ प्रमाणे नियत–
अनियतपणुं ते जैनदर्शननो अनेकान्तवाद छे’ –एम अज्ञानीओ माने छे, परंतु ते वात जुठ्ठी छे; जैनदर्शनना
अनेकान्तवादनुं एवुं स्वरूप नथी. नियत अने अनियतनो अर्थ तो अहीं कहेवायो ते रीते छे. द्रव्यस्वभावे
आत्मा नियत शुद्ध एकरूप होवा छतां, तेनी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते तेनो अनियतस्वभाव छे; विकार
कायम एकरूप रहेनारो भाव नथी माटे तेने अनियत कह्यो छे–एम समजवुं.
नियतधर्मथी जोतां आत्मा एकरूप शुद्ध ज सदा भासे छे अने अनियतधर्मथी जोतां आत्मा विकारवाळो
पण छे. जो आत्मामां पोतामां अनियतपणे विकार थवानो धर्म न होय तो अनंता कर्मो भेगा थईने पण तेने
विकारी करी शके नहि. विकार अनियत होवा छतां ते परने लीधे नथी पण आत्मानो पोतानो भाव छे.
शुद्धस्वभाव त्रिकाळ ध्रुव छे तेमां विकार नथी ने पर्यायमां विकार थयो–माटे तेने अनियत कह्यो; परंतु ते विकार
थवानो न हतो ने थई गयो–एवो अनियतस्वभाव नथी. पर्यायनुं जे नियतपणुं छे ते वात अहीं नथी लीधी,
अहीं नियत तरीके त्रिकाळीस्वभाव लीधो छे ने अनियत तरीके पर्यायनी क्षणिक अशुद्धता लीधी छे.
–२७ मा अनियतिनयथी आत्मानुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.
अहीं प्रवचनसारना परिशिष्टमां पांच समवायना बोल लीधा छे पण ते बीजी शैलीथी लीधा छे; तेमां
नियत तथा अनियत धर्मनुं वर्णन कर्युं; हवे आत्माना स्वभावधर्म अने अस्वभावधर्मनी वात करशे. त्यारपछी
काळ तथा अकाळ तेम ज पुरुषार्थ अने दैवनुं पण वर्णन करशे.