Atmadharma magazine - Ank 113
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: ८८ : आत्मधर्म २४७९: फागण:
तो तो विकार सदा थया ज करे.–पण एम नथी. तेम ज आत्मा विकारनुं कार्य पण नथी; एटले के
व्यवहाररत्नत्रय ते कारण अने आत्मानुं सम्यग्दर्शन ते कार्य–एम नथी. सम्यग्दर्शन वगेरे निर्मळपर्याय प्रगटी
ते आत्मामां अभेद छे, एटले जेम व्यवहाररत्नत्रयना कारणथी आत्मद्रव्य नथी बनतुं तेम तेनी निर्मळ पर्याय
पण नथी बनती. कारण–कार्य अभेद छे, अहीं विकार साथे पण आत्माने कारण कार्य पणुं स्वीकार्युं नथी. परंतु
एनो अर्थ एम न समजवो के कर्मना कारणे विकार थाय छे! अहीं तो आत्मानी त्रिकाळी शक्तिओनी वात छे,
त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां आत्मामां विकार थतो ज नथी, माटे आत्मा विकारनुं कारण नथी–एम
समजवुं.
चैतन्यस्वरूप आत्मामां पोतानी ज्ञानादि अनंत शक्तिओ त्रिकाळ छे, परंतु शरीर–मन–वाणी के पुण्य–
पाप ते कोई आत्माना त्रिकाळ स्वरूपमां नथी; तेथी ते शरीर–मन–वाणी वडे के पुण्य–पाप वडे आत्मानो
महिमा नथी पण पोतानी अनंतशक्तिओ वडे ज आत्मानो महिमा छे. जेम कंदोईनी दुकाने अफीण के कोडियां
न मळे पण मावो मळे, अने अफीणवाळानी दुकाने मावो न मळे पण अफीण मळे, जेनी पासे जे होय ते तेनी
पासेथी मळे; तमे आत्मा ज्ञान–आनंद वगेरे अनंतगुणनो भंडार छे, तेनी श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता करतां तेमांथी
गुण मळे, पण विकार के जड तेमांथी न मळे. पुण्य–पाप तो अफीणना गोटा जेवा छे तेनी दुकान जुदी छे, अने
शरीर–मन–वाणीनी क्रिया ते कुंभारना कोडिया जेवी छे, तेमां क्यांयथी आत्मानो धर्म मळे तेम नथी, अने
आत्मस्वभावनी दुकानेथी ते कोई मळे तेम नथी. जडनुं कोई तत्त्व अथवा जडनी क्रिया के पुण्य–पापना विकारी
भावोने आत्माना अंर्तस्वरूपमां शोधे तो ते मळे तेम नथी. अने जडनी क्रियामां के विकारी भावमां आत्माना
अंर्ततत्त्वने शोधे तो ते पण मळे तेम नथी. जेम अफीणवाळानी दुकाने जईने कोई एम कहे के ‘दस शेर मावो
सारा दूधनो आपजो!’ –तो ते मूर्ख ज कहेवाय. अफीणवाळा पासे अफीणनो मावो होय पण दूधनो मावो न
होय. तथा कुंभारना घरे जईने कोई कहे के ‘दस शेर ताजा पेंडा आपजो’ तो ते मूर्ख ज कहेवाय. कुंभारना घरे
तो माटीना पिंडा होय पण त्यां कांई पेंडा न मळे. तेम ज कंदोईनी दुकाने आवीने कोई कहे के ‘पांच तोला सारुं
अफीण आपजो’ अथवा पचास कोडियां आपजा!’–तो ते मूर्ख ज कहेवाय. तेम आत्मा अनंत गुणनी मूर्ति
कंदोईनी दुकान जेवो छे, तेनी पासेथी आनंदरस मळे छे, तेने बदले विकारमां के जडनी क्रियामां आनंद लेवा
जाय अथवा तेनाथी धर्म माने तो ते जीव परमार्थे मोटो मूर्ख–मिथ्याद्रष्टि छे, जे जीव शरीरनी क्रियाथी अनेक
पुण्यथी धर्म माने छे ते जीव लौकिकमां भले गमे तेवो बुद्धिवाळो गणातो होय परंतु परमार्थमार्गमां मूर्ख ज छे.
वळी कंदोईनी दुकाने अफीण के कोडियां लेवा जनार जेम मूर्ख छे तेम चिदानंदभगवान आत्मा पासे जडनी क्रिया
अने विकार कराववानुं माने छे ते पण मूढ–मिथ्याद्रष्टि ज छे. अज्ञानीओ शरीरनी क्रियाथी ने पुण्यथी आत्मानी
मोटाई माने छे, पण शरीरनी क्रियानुं के पुण्यनुं कारण थाय एवो आत्मानो स्वभाव ज नथी–एनुं अज्ञानीने
भान नथी.
आत्माना स्वभावमां एवुं अकार्यकारणपणुं छे के पोताना स्वभावथी अन्य एवा कोईपण परद्रव्य के
परभाव साथे तेने कारण कार्यपणुं नथी. शरीर–मन–वाणी के देव गुरु शास्त्र ते बधा आत्माथी अन्य छे.
तेमनाथी आ आत्मानुं कांई कार्य थतुं नथी तेम ज आ आत्मा तेमना कार्यने करतो नथी. वळी पुण्य पाप पण
आत्माना स्वभावथी अन्य छे एटले तेनाथी आत्मानुं सम्यग्दर्शनादि कांई कार्य थाय–एम नथी, तेम ज
आत्मा कारण थईने ते विकारी भावोरूप कार्यने उत्पन्न करे–एम पण नथी. आवो आत्मानो अनादिअनंत
अकार्यकारण स्वभाव छे. पोतानुं कार्य परथी थाय नहि अने पोते परनुं कार्य करे नहि–एवी अकार्यकारणत्व
शक्ति तो जोके बधा द्रव्योमां छे, परंतु अत्यारे आत्मानी ओळखाण कराववा माटे तेनी शक्तिओनुं वर्णन
चाले छे. कोईपण द्रव्यमां एवी शक्ति नथी के बीजाना कार्यने करे. अने कोईपण द्रव्य एवुं पराधीन नथी के
पोताना कार्यने माटे जुदा कारणनी अपेक्षा राखे.–आवुं वस्तुस्वरूप छे, आ जैनदर्शननुं रहस्य छे.
आवा यथार्थ वस्तुस्वरूपनी लोकोने खबर नथी,