पण अद्भुत हतुं. सेंकडो आम्रवृक्षनी घटावाळा एक सुंदर वनमां दीक्षाविधि थई हती. जाणे वैराग्यनो महा
गंभीर समुद्र पडयो होय एवुं ए वननुं वातावरण हतुं. वनमां जईने ए वैराग्यमूर्ति भगवाने वस्त्राभूषण
वगेरे छोडी दीधा अने पू. गुरुदेवे प्रभुजीनो केशलोंच कर्यो. प्रभुजीनो केशलोंच करवा ऊभा थया त्यारे गुरुदेवना
रोमेरोम वैराग्यरसथी भींजाई गया हता. पहेलां थोडीवार तो एकीटशे भगवाननी वैराग्यमुद्राने जोई ज रह्या
त्यारे चारे बाजुनुं वातावरण वैराग्यथी स्तब्ध थई गयुं हतुं....पछी प्रसन्नवदने खूब ज गंभीरभावपूर्वक पु.
गुरुदेवश्रीए तीर्थंकरभगवाननो केशलोंच कर्यो–ते वखतनुं वैराग्यप्रेरक द्रश्य जोतां मुमुक्षुओना रोमांच उल्लसी
जता हता अने मुखमांथी ‘धन्य....धन्य’ ना उद्गार नीकळी जता हता. केशलोंच पछी सिद्ध भगवंतोने
ज्ञानसमुद्र आजे अध्यात्मरसनी वीतरागी लहरीओथी ऊछळतो हतो. एक तो गीरनारना सहस्रावन जेवुं
भव्य आम्रवन....वळी नेमनाथ भगवाननी दीक्षाओ वैराग्य प्रसंग......अने तेमां वळी पु. गुरुदेवश्रीनुं
प्रवचन.... पछी शुं बाकी रहे! ए वखते तो, हजारो श्रोताजनोथी खीचोखीच भरेला आखा वनने गुरुदेव
वैराग्यभावनामां झूलावी रह्या हता.....प्रवचनना शब्दे शब्दे वैराग्यना अद्भुत झणकार ऊठता हता.....ते
सांभळतां श्रोताजनोनां हृदय पण ऊछळी जता हता अने एम थतुं हतुं के जीवन कृतार्थ थयुं....धन्य आजनो
प्रसंग...ने धन्य आजनुं प्रवचन! ए प्रवचननो झणझणाट हजी पण अनेक भक्तजनोना हृदयमां ताजो ज
छे....अने प्रवचन समयनी पु. गुरुदेवनी वैराग्यमस्तीथी भरपुर खूबज प्रसन्न–प्रसन्न मुद्रा अत्यारे पण नजर
समक्ष तरवरी रही छे. दीक्षावनना आ प्रसंगनो ख्याल तो जेणे नजरे जोयो होय तेने ज आवे.
हता. नेमिनाथ भगवाने आ सौराष्ट्रमां ज दीक्षा लीधी हती. भगवाने ज्यां दीक्षा लीधी हती ते गीरनारनुं
सहस्रावन तो अहींथी प०–६० कोस दूर छे....ने भगवाने तो हजारो वर्षो पहेलां श्रावण सुद छठ्ठे दीक्षा लीधी
हती तथा अत्यारे तो भगवान सिद्धालयमां बिराजे छे, परंतु–जुओ ने! आपणे तो अहीं ज सहस्रावन छे....
आजे ज आपणे श्रावणसुद छठ्ठ छे ने आजे ज अहीं भगवाननी दीक्षा थाय छे. अहो! आजे तो जाणे नेमिनाथ
भगवान साक्षात् अहीं पधार्या होय ने आपणे सामे दीक्षा लेता होय–एवुं लागे छे....’ पू. गुरुदेवना आ
उद्गार सांभळतां हजारो श्रोताजनो खूब ज आनंदित थया हता अने तालीओ तथा हर्षनादथी वनने गजावी
दीधुं हतुं.....जाणे खरेखर भगवान प्रत्यक्ष पधार्या होय–एवुं उल्लासमय वातावरण ते वखते सभामां फेलाई
पहेलां पण कषायनी मंदतारूपे ब्रह्मचर्य वगेरेनो शुभभाव आवे तेनो निषेध नथी. जोके मंदकषाय ते कांई धर्म
नथी, धर्म तो तेनाथी जुदी चीज छे; रागरहित चैतन्यतत्त्वनी रुचि अने समजणथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे,
अने पछी ज श्रावक के मुनिदशा होय छे; छतांपण विषयकषायना तीव्र पाप छोडीने शुभभाव करे तेनो निषेध
न होय.