Atmadharma magazine - Ank 114
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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प्रथम वैशाखः २४७९ः १३१ः
फर्या....भगवानना केशने इन्द्रे क्षीर समुद्र तरीके एक कूवामां पधरावी दीधा.
बपोरे तथा रात्रे मुनिराजनी भक्ति थई हती, तेमज अजमेरनी भजनमंडळीए ‘नेमिकुमार तथा
सारथी वच्चेनो संवाद’ अने ‘राजीमती तथा तेना पिताजी वच्चेनो संवाद’ काव्यरूपे संभळाव्यो हतो.
आहारदान
(चैत्र सुद नोम–सोमवार)
आजे तीर्थंकरभगवान श्री नेमिनाथ मुनिराजना प्रथम आहारनो महा पवित्र प्रसंग बन्यो हतो.
प्रभुजी आहार माटे नगरीमां पधार्या छे.....भक्तजनो भावना भावतां ऊभा छे के ‘अहो! आपणा आंगणे
भगवान पधारे अने आपणे भगवानने भक्तिपूर्वक आहारदान दईए....अहो, धन्य ते अवसर ने धन्य ते
काळ.....के ज्यारे मुनि भगवंतना पावन करकमळमां आ हाथथी आहारदान आपीए!’ प्रभुजी जे रस्ते
विचरता ते रस्ते ऊभेला भक्तजनो भगवानने आहार माटे पडगाहन करता हता. ए रीते विचरतां विचरतां
भगवान ‘श्राविका ब्रह्मचर्याश्रम’ पासे पधार्या; त्यां बेनश्री चंपाबेन अने बेनजी शांन्ताबेन वगेरे भक्तजनो
भावना भावतां ऊभां हतां. पोताना आंगणे भगवानने नीहाळतां ज अत्यंत भक्तिपूर्वक हृदयना उमळकाथी
बंने बहेनोए पडगाहन कर्युंं.–‘हे भगवान! नमोस्तु! नमोस्तु! नमोस्तु! पधारो......पधारो....अमारा आंगणे
पधारो.....हे प्रभो! अत्र तिष्ठ तिष्ठ......मनशुद्धि–वचनशुद्धि–कायशुद्धि–आहारशुद्धि......हे नाथ! अमारा
आंगणाने पावन करो!’ भगवान त्यां ऊभा रही गया एटले खूब ज प्रसन्नतापूर्वक भगवानने प्रदक्षिणा
करी...... अंतरनी भक्ति अने प्रमोदना बळने लीधे सहेजे ए प्रदक्षिणा देवाई जती हती....भगवान अंदर
पधार्या त्यां एक महा पवित्र स्थानमां प्रभुजीने बिराजमान करीने, खूब ज भावपूर्वक पादप्रक्षालन पूजन वगेरे
नवधाभक्ति करी.....अने पछी बंने बेनोए हैयाना उमळकाथी अतिशय भक्तिपूर्वक भगवानना करकमळमां
आहारदान आप्युं. अहो.....ए जीवननो धन्य प्रसंग हतो....ए पावन प्रसंग नीहाळतां नीहाळतां हजारो
भक्तजनो ए आहारदाननुं अनुमोदन करी रह्या हता....पू. गुरुदेवश्री पण आहारदाननो प्रसंग भक्तिपूर्वक
नीहाळता हता. श्राविकाब्रह्मचर्याश्रममां पु. बेनश्री–बेनना आंगणे एक भव्य सुशोभित मंडपमां भगवानना
आहारदाननो प्रसंग थयो हतो.
आ प्रसंगे केटलुंक विवेचन करतां प्रतिष्ठाचार्य पं. श्री नाथुलालजी साहेबे कह्युं हतुं केः ‘देखो! यह बहुत
ही हर्षका प्रसंग है कि आज द्वारिका नगरी में वरदत्तराय महाराजा के यहां भगवान नेमिनाथ मुनिराज
का प्रथम आहार हो रहा है
.......और वरदत्तमहाराज की ये दोनों बहिनें बडी भक्ति से भगवान को
आहारदान दे रही हैं..........महाराज की इन दोनों बहिनों ने धर्म मय प्रवृत्ति के लिये अपना सारा जीवन
अर्पण कर दिया है.......’ धन्य ए प्रसंग! ज्यां आहार लेनारा तो तीर्थंकर भगवान जेवा उत्कृष्ट पात्र हता
अने आहार देनारा दातार पण महा पवित्र आत्माओ हता......उत्तम पात्र अने उत्तम दातार ए बंनेनो
अद्भुत सुयोग त्यां थई गयो हतो...चारे बाजु
‘अहो दानम्......महा दानम्’ ना हर्षनाद अने पुष्पवृष्टि थई
रही हती. अहो! ए आहारदान वखतना भावोनी शुं वात थाय! निर्विकल्प अनुभव वखते जेम नय–निक्षेपना
विकल्पो नथी होता, तेम भगवानने आहारदान देती वखते अपुर्व भक्तिना उल्लासने लीधे भावनिक्षेप अने
स्थापनानिक्षेपनो भेद भुलाई जतो हतो ने साक्षात् भगवानने ज आहार देता होईए–एवो आह्लाद थतो
हतो. आजे पण, ए धन्य प्रसंगनी वात नीकळतां ज बंने बहेनो अत्यंत प्रमोद अने उल्लासथी गदगद थईने
कहे छे केः ‘अहो! अमारी घणा वखतनी भावना हती ते पुरी थई.....भगवानने आहार देती वखते तो जाणे
साक्षात् तीर्थंकरभगवान ज आंगणे पधार्या होय–एम थतुं हतुं.....ने सहेजे सहेजे भावो उल्लसी जता
हता....अहो! रत्नत्रयधारक साक्षात् मोक्षमार्ग अमारे आंगणे आव्यो......अमारा आंगणे तीर्थंकरना पगलां
थयां......मुनिराजना पवित्र चरणथी अमारुं आंगणुं पावन थयुं....भगवानने आहार देवाथी अमारा हाथ
पावन थया....अमारुं जीवन कृतार्थ थयुं....जीवनमां विरल ज आवे एवो ए धन्य प्रसंग हतो....’
आहारविधि पूर्ण थया पछी बेनश्री–बेनना घरमां पधारीने भगवाने ए भुवनने पावन कर्युं.....
भगवान त्यां आत्मध्यानमां बिराजता हता त्यारे गुरुदेव खूबखूब भावपूर्वक भगवानने नमस्कार करीने
तेमनी सन्मुखमां ज बेसी गया.........ते वखते गुरुदेव भगवाननी साथे जाणे के अंतरनी कोई ऊंडी ऊंडी वातो
करी रह्या होय!–एवुं ए