Atmadharma magazine - Ank 114
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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प्रथम वैशाखः २४७९ः १३३ः
सुवर्णशलाका सोहे श्री गुरुवर करकमलोमां.......(२)
पुनित अंतर–आतमथी अंकन्यासविधि थाय छे....श्री०.....
श्री विदेहक्षेत्रमांही सीमंधरनाथ बिराजे.......(२)
अमी द्रष्टि वरसावे श्री मंगलविधिमांही.......श्री०.........
–आ पंच कल्याणकमांही... श्री०.........
वीतराग स्वरूप बताव्युं श्री कहान गुरुदेवे..........(२)
जिनवरवैभव बताव्या जिनस्तंभने थंभावीआ.....श्री०.......
श्री जिनवर लोचन सोहे गुरुदेवना मनडां मोहे......(२)
जिनेन्द्र पधार्या द्वारे तुज महिमा अद्भुत आजे.....श्री०.......
सुवर्णधाममां पधारेलां ए भगवंतो उपर पू. गुरुदेवे अंकन्यास खूब ज भावपूर्वक कर्यो हतो, ते वखते
तेमनी मुद्रा अतिशय प्रसन्नताथी झळकती हती. तेओश्री पहेलां थोडीकवार सुधी तो खूब ज भक्तिपूर्वक
एकाग्रनयने प्रभुजीनी मुद्रा नीहाळे.....ने पछी जाणे के भगवाननी परम उपशांत वीतरागी मुद्रा नीहाळीने प्रसन्न
थया होय तेम अंतरना उमळकाथी प्रतिमाजी उपर मंत्राक्षरो लखे. मंत्राक्षर लख्या पछी फरी पाछा भगवाननी मुद्रा
सामे ताकी ताकीने एकाग्रताथी जोई रहे.....त्यारे तो जाणे गुरुदेवना हैयामांथी ‘अहो! मारा
सीमंधरनाथ.......पधारो....पधारो!’ एवो ध्वनि ऊठतो होय–एम लागतुं हतुं. ए प्रमाणे प्रतिमाजीने फरी फरीने
नीरखता जाय ने मंत्राक्षर करता जाय. आ रीते अंकन्यासविधि करीने पधार्या त्यारे गुरुदेव खूब ज प्रसन्नतापूर्वक
हर्षित थता हता–महाविदेही सीमंधर भगवान अहीं पधारता होय त्यारे गुरुदेवना हैयामां हरख केम समाय!
केवळज्ञान कल्याणक (सोमवार चैत्र सुद नोमः बपोरे)
अंकन्यास विधान पछी पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन चाली रह्युं हतुंः हे चिदानंदनाथ! केवळज्ञान थवानुं
सामर्थ्य तारी अंतर शक्तिमां भर्युं छे, तेमां अंतर्मुख थईने प्रतीत अने एकाग्रता करतां केवळज्ञान प्रगटी जशे–
इत्यादि वात चालती हती अने श्रोताओ ते सांभळवामां एकाग्र हता, त्यां तो अचानक आश्चर्यकारी खळभळाट
थयो अने चारेबाजु मंगलनाद थवा लाग्या. हजी ते खळभळाट शमे ते पहेलां तो सामे भगवाननुं भव्य
समवसरण देखायुं अने खबर पडी के अहो! नेमिनाथ भगवानने केवळज्ञान थयुं. आ प्रसंगे समवसरणनी
सुंदर रचना थई हती. विविध प्रकारनी रंगबेरंगी रचनाओथी शोभता समवसरणनी मध्यमां गंधकुटी उपर
भगवान बिराजता हता. भगवानने जोतां ज गुरुदेवे पाट उपरथी उतरीने भक्तिपूर्वक नमस्कार कर्या. भव्य
जीवोना टोळेटोळां भगवाननी दिव्यध्वनि सांभळवा उत्सुक बन्या....आ प्रसंगे भगवाननी दिव्यध्वनि तरीके पू.
गुरुदेवश्रीए अपूर्व प्रवचन करतां कह्युं केः ‘भगवाननो उपदेश धर्मवृद्धिनुं ज निमित्त छे. भूतार्थस्वभावना ज
आश्रये लाभ थवानुं भगवाने कह्युं छे. जे जीव शुद्धनयथी भूतार्थस्वभावनो आश्रय करीने पोताना आत्मामां
धर्मनी वृद्धि करे ते ज भगवाननी दिव्यवाणीनो खरो श्रोता छे...’
दिव्यध्वनिनुं प्रवचन पूरुं थया बाद ईंद्रोए समवसरणमां बिराजमान तीर्थंकरभगवाननुं पूजन कर्युं हतुं.
सांजे विद्यार्थी–बाळकोए वैराग्य अने तत्त्वचर्चाथी भरपूर एक संवाद कर्यो हतो. तेमां, जंगलमां
ध्यानस्थ मुनिराजने वज्रबाहुकुमारएकीटीशे जोई रहे छे ने ए धन्यदशानी भावना भावे छे, त्यां तेनो साळो
उदयसुंदर कहे छे के ‘तमारे तो मुनि नथी थवुं ने!’ ए वात सांभळीने वज्रबाहुकुमार वैराग्यपूर्वक दीक्षा
अंगीकार करे छे–ए प्रसंग मुख्यपणे बताववामां आव्यो हतो.
रात्रे समवसरणमां बिराजमान श्री नेमिनाथ भगवाननी भक्तिसहित प्रदक्षिणा करवामां आवी हती.
नेमिनाथ भगवान आ सौराष्ट्र देशमां ज गीरनार उपर केवळज्ञान पाम्या छे तेथी भक्तिमां खूब ज
उल्लासपूर्वक नीचेनी धून गवाती हती–
बालब्रह्मचारी जिणंद पदधारी सेवे सुरनर चंदा रे.........
गीरनारगीरी पर नेम जिणंदा भेटंत टळे भवफंदा रे.....
जिणंद पदधारी रागद्वेष निवारी घाति करम क्षयकारी रे...
सहस्रावने केवळ प्रगटावी कल्याण मंगल जयकारी रे......
ईंद्रादिक सूर असंख्य आवे समवसरण विरचावे रे.......
गीरनार गीरी पर नेम जिणंदकी कल्याणक त्रण भूमि रे..... (इत्यादि)