Atmadharma magazine - Ank 114
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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प्रथम वैशाखः २४७९ः १३७ः
दीर्घ संसार होतो नथी; तेम आ ६३ फूट ऊंचो मानस्तंभ एम बतावे छे के अहीं आवीने जे यथार्थ तत्त्वज्ञान
समजे ते जीव पण अल्पकाळमां मोक्ष पामी जाय छे. मानस्तंभनी ऊंचाई अने श्लाका पुरुषोनी संख्या ए
बंनेनो कुदरती मेळ थई गयो छे.
कुदरत पण आ महोत्सवमां साथ पुरावती होय तेम आ महोत्सवनी पहेलां तेम ज पछी दूर दूरना हजारो
हिंदी–यात्राळुओ सोनगढनी यात्राए आवता हता. सोनगढना महोत्सवनी पूर्वे थोडा ज दिवसो पहेलां (फागण
वद पांचमे) श्रवणबेलगोलामां ईंद्रगीरी पर्वत उपरना लगभग एक हजार वर्ष पुराणा प७ फूट ऊंचा भव्य
बाहुबली–गोमटेश्वर भगवंतनो महामस्तकाभिषेक हतो, त्यां हजारो यात्राळुओ सोनगढ ऊतरता. मोटर बस अने
ट्रेईन द्वारा रोज–रोज सेंकडो यात्राळुओना संघ आव्या ज करता, अने सोनगढ यात्राळुओथी भर्युं ज रहेतुं.
महोत्सव पहेलां स्पेश्यल ट्रेईन द्वारा कलकत्ताना (वछराजजी शेठना भाई) गजराजजी शेठ तथा तोलारामजी शेठ
वगेरे सहित लगभग पांचसो माणसोनो संघ आव्यो हतो; श्री परसादीलालजी पाटनी, पण साथे हता. आ उपरांत
बाबु कामताप्रसादजी, पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार. पं. परमानंदजी, लाला राजकृष्णजी तथा शेठ छदामीलालजी वगेरे
पण आव्या हता; अने सोनगढना धर्ममय वातावरणथी तथा पू. गुरुदेवश्रीना समागमथी अतिशय प्रभावित थया
हता. छदामीलालजी शेठ तथा लाला राजकुष्णजीए विहार माटे विनति करतां पू. गुरुदेवने कह्युं हतुं केः
महाराज!
सम्मेदशिखरजी की यात्रा करने के लिये आप पधारें तो शिखरजी की यात्रा का संघ निकालने की मेरी
भावना है।’
आ सिवाय जयपुर, दिल्ही वगेरे तरफना घणा लोको पण गुरुदेवने विहार माटे विनंति करता.
सोनगढनी यात्राथी भक्तजनो पोताने धन्य समजता अने कहेता के दुसरी सब जगह तो चाहे जाना बने या न
बने लेकिन सोनगढ़ तो अवश्य जाना। महोत्सव दरमियान पण घणा हिंदी यात्राळुओ हता. मारवाडी
यात्राळुओ माटे ‘पुंडरीकिणीनगरी’ मां खास जुदी व्यवस्था करवामां आवी हती. महोत्सव पछी हजारो यात्राळुओ
आवेला, तेमांथी घणा कहेता के
यहां का महोत्सव देखने का सौभाग्य हमको नहीं मिला। केटलाक लोको सोनगढ
संबंधमां गलत वातो सांभळीने पहेलां भ्रममां पडी गया हता परंतु सोनगढ आवीने गुरुदेवनो प्रत्यक्ष समागम
करतां तेमनी भ्रमणा दूर थई जती अने गदगद थईने तेओ कहेता–
‘यहां के संबंधमें हमने पहले कुछ और मान
लिया था, लेकिन यहां आकर के हमने दूसरा ही हाल देखा, अब हमारी भ्रमणा मिट गई। अजमेरना भाई
श्री हीराचंदजी वोहरा महोत्सव दरमियान गुरुदेवना सीधा समागम पछीनो पोतानो अभिप्राय जणावतां
‘जैनमित्र’ मां लखे छे केः
‘यहां पर श्री पू० कानजी स्वामी के तात्त्विक प्रवचनों में बडा़ ही आनंद आता है।
निश्चय और व्यवहारद्रष्टि से सम्यक्रूप से समझाने की जो सुन्दर शैली है ऐसी अन्यत्र हमारे देखने में नही
आई। विद्वानो को अवश्य वहां जाकर लाभ उठाना चाहिए। द्रष्टिप्रधान कथन का निरूपण बहुत तर्कयुक्त
एवम् पूर्ण विवेचन के साथ किया जाता है। वहां के लोगों की वात्सल्यता, जिनेन्द्र भक्ति, वीतरागधर्म की
प्रभावना, जिनवाणी–प्रचारकी भावना, मंदकषायवृत्ति, निष्कपटता तथा सोनगढ़ का जिनमंदिर, समवसरण
की भव्य रचना, कुन्दकुन्द प्रवचनमंडप आदि सभी बातों के कारण सोनगढ़ तीर्थधाम बन गया है। हमारा
तो समाज के सभी धर्मप्रेमी बन्धुओं से अनुरोध है कि एक बार वहां अवश्य जावें। ऐसा निराकुल शांत
वातावरण बहुत कम जगह मिलता है।’
आ सिवाय अनेक त्यागीओ आवेला. तेओ पण खूब प्रसन्न थया
हता अने कोई कहेता केः ‘महाराज! हम को तो यहां आ करके सच्ची निधि मिली!’ समाजमां प्रतिष्ठित
गणाय एवा एक त्यागी तो कहेता हता के “ऐसी अपूर्व बात कहीं पर सुनने में नही आती; मेरा तो यह ख्याल
है।”
पू. गुरुदेव हरेक प्रवचनमां आत्मानी साची समजण उपर खास भार मूकीने कहेता केः
‘मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो’
–‘आत्माना साचा ज्ञान वगर त्याग नकामो छे.’ सम्यग्ज्ञाननुं आवुं महत्व सांभळीने कोई कोई
त्यागीओ सरलपणे गुरुदेवने कहेता के–‘महाराज! बात तो आप कहते हो ऐसी ही है; हमने भी त्याग तो
ले लिया किन्तु वस्तुको हम नहीं समझे। ज्ञान के बिना हमने त्याग ले लिया लेकिन अब क्या करे?’
तेमनी मूंझवण जोईने गुरुदेव वात्सल्यपूर्वक तेमने आश्वासन देता केः ‘तमे