प्रथम वैशाखः २४७९ः १२७ः
जाय छे. चारे बाजु मंगलनाद थाय छे; सौधर्मेन्द्र तथा शची इन्द्राणी ऐरावत हाथी उपर आवीने नगरने त्रण
प्रदक्षिणा करे छे, पछी शची इन्द्राणी भगवानने तथा माताने नीरखतां भक्तिपूर्वक स्तुति करे छे–
धन्य धन्य नाथ परम सुखकारी, तीनलोक जननी हितकारी,
मंगलकारी पुन्यवती तूं, पुत्रवती शुचि ज्ञानमती तूं।
तव दर्शनसे हम सुख पाये, हर्ष हृदयमें नाहिं समाये,
धन्य धन्य माता हम जाना, देख तुझे अरू श्री भगवाना।।
–ए प्रमाणे स्तुति बाद, ईंद्राणी बाल भगवानने हाथमां तेडीने ईंद्रना हाथमां सोंपे छे. अहो! तीर्थंकर
भगवानने पोताना हाथमां तेडवानुं परम सौभाग्य जेने प्राप्त थयुं ते शची ईंद्राणी एकावतारी ज होय–एमां
शुं आश्चर्य! भगवानने निहाळीने ईंद्र ईंद्राणी अतिशय प्रसन्न थाय छे, ने हाथी उपर बिराजमान करीने
जन्माभिषेक माटे मेरुपर्वत उपर लई जाय छे. प्रतिष्ठा–महोत्सवमां हाथी पण आवेलो होवाथी आ बधा प्रसंगो
बहु शोभता हता. तेमांय गामना एक छेडाथी बीजा छेडा सुधी फेलायेला जन्माभिषेकना वरघोडानो देखाव तो
खूब ज भव्य अने महिमावंत हतो....ते वखते सोनगढ गाम बहु नानुं पडतुं हतुं. जे रस्तेथी भगवाननो हाथी
पसार थतो होय ते रस्तानी चारे तरफनी अटारीओ पण माणसोथी उभराई जती हती. हाथी पर बिराजमान
भगवानने नीरखी–नीरखीने भक्तजनो नाचता हता अने अद्भुत भक्ति करता हता. हाथी पण जाणे के
खुशीमां आवीने ए भक्तिमां साथ पुराववा माटे भगवानने चामर ढाळवा मांगतो होय–तेम सूंढमां चामर
पकडीने इन्द्रने आपतो हतो. आम भगवाननी भक्ति करतां करतां रथयात्रा मेरु पासे आवी. नदी किनारे एक
ऊंचा सुंदर स्थान पर मेरुनी रचना करवामां आवी हती. हाथीए ते मेरुने त्रण प्रदक्षिणा करी अने पछी
जयजयकारपूर्वक खूब ज उल्लासमय भक्तिथी तीर्थंकर भगवाननो जन्माभिषेक थयो. ए जन्माभिषेकनुं अति
भव्य द्रश्य तीर्थंकर भगवंतनो अपरंपार महिमा दर्शावतुं हतुं के.....अहो! धन्य एनो अवतार! आ भगवानना
आत्माए जन्म पूरां करी लीधा, हवे फरीथी आ संसारमां एनो अवतार नहि थाय. एक छेल्लो जन्म हतो ते
पूरो करीने भगवानना आत्माए जन्म पूरां करी लीधा, हवे फरीथी आ संसारमां एनो अवतार नहि थाय.
एक छेल्लो जन्म हतो ते पूरो करीने भगवान भवरहित थई गया....अपुर्व आत्मदर्शनना प्रतापे भगवानने
भवनो अंत आवी गयो. अहो! अनेकानेक भव्य जीवोनो उद्धार करनार आवा भगवाननो जन्मोत्सव ईंद्रादिक
ऊजवे एमां शुं आश्चर्य! खरुं कह्युं छे के–
‘घटे द्रव्य जगदीश अवतार एसो
कहो भाव जगदीश अवतार कैसो?’
–ए ऊर्ध्वगामी आत्मानो जन्माभिषेक मेरु जेवा ऊर्ध्वस्थान पर ज केम न थाय? मनुष्यलोकनुं सौथी
ऊर्ध्वस्थान एटले मेरु पर्वत....अने सौथी उत्तम मनुष्य एटले तीर्थंकर. ए उत्तम पुरुषनो अभिषेक उत्तम स्थान
उपर ऊर्ध्व लोकना उत्तम आत्मा (ईंद्र) द्वारा थयो. अहो, धन्य धन्य ते प्रसंग! तीर्थंकर प्रभुना साक्षात्
जन्माभिषेकनी तो वात ज शुं! पण अहीं भगवानना जन्माभिषेकनो पावन देखाव जोवो ते पण महाभाग्य
हतुं....जाणे अहीं पण तीर्थंकर हाजर होय–एवुं ते वखतनुं वातावरण हतुं. अने वळी ‘जयजयकार’ नी धून
तथा भक्ति–नृत्य–द्वारा ते प्रसंगना उल्लासमां खूबज वृद्धि थती हती. ज्यां जन्माभिषेक थयो ते स्थळनी
कुदरती शोभा घणी सुंदर हती. एक ऊंचा टेकरा उपर मेरु पर्वत शोभतो हतो अने बाजुमां ज ऊंडाणमां
आवेली नदीने लीधे असल क्षीर समुद्र जेवो देखाव लागतो हतो. आथी जन्माभिषेक वखतनो कुदरती देखाव
घणो ज शोभतो हतो.
जन्माभिषेक बाद ईंद्राणीए अतिशय भक्ति अने प्रमोद पूर्वक बालभगवान नेमिकुंवरने दिव्य
वस्त्राभूषण पहेराव्यां, अने पछी ए नानकडा प्रभुजीने मोटा हाथी उपर बिराजमान करीने नगरीमां पाछा
आव्या. पछी प्रभुजीनुं पूजन करीने इन्द्रोए बहु ज भक्तिपूर्वक विस्मयकारी तांडवनृत्य करीने पोतानो आनंद
व्यक्त कर्यो. ए वखतनां उल्लास अने आनंदमय वातावरणमां तांडवनृत्यना तालनी साथे साथे भक्तजनोनां
हैयां पण भक्तिथी नाचता हता.
जन्मकल्याणक वगेरे प्रसंगे आकाशमांथी देवविमान उतरता होय–एवो देखाव थयो हतो.
पारणा–झूलन
बपोरे बाल भगवान श्री नेमिकुंवरना पारणा–झूलननुं द्रश्य थयुं, भक्तो भक्तिपूर्वक भगवाननुं पारणुं
झुलावी रह्या हता. चारे तरफ दीपकोना प्रकाशथी शोभी रहेला