होय ते वखते पण अंतरमां ज्ञायकद्रष्टिनी मुख्यता कदी छूटती नथी, तेम ज छठ्ठा गुणस्थान जेटली आत्मजागृति
ते वखते पण वर्ते छे.
एम मानता होय–तेने तो मुनिदशानी गंध पण कयांथी होय? सम्यग्दर्शन थया पछी पण मुनिदशा माटे घणो
पुरुषार्थ मांगे छे. वस्त्रनो त्याग के मजबूत शरीर वगेरे कोई बाह्य कारणोने लीधे मुनिदशा थती नथी पण
आत्मा पोते कर्ता थईने मुनिदशा प्रगट करे छे, मुनिदशाना छए कारकोपणे आत्मा पोते ज परिणमे छे.
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तेमज सम्यक्चारित्र ए त्रणेय आत्मा पोते पोताना पुरुषार्थथी करे त्यारे थाय छे,
आत्माना अंतर्मुख पुरुषार्थ वगर ते थई जतां नथी. चैतन्यस्वभावमां अंतर्मुख थईने लीन थतां राग टळी
जाय छे, राग टाळवा माटे जुदो पुरुषार्थ करवो पडतो नथी. पहेलां ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करतां अपूर्व
सम्यग्दर्शन थाय छे, तेना कर्तापणे आत्मा ज परिणमे छे; सम्यग्दर्शन पछी बारभावनारूपी वीतरागी परिणति
तेम ज मुनिदशा थाय छे ते पण आत्मा पोते पोतानी स्वाधीन कर्तृत्वशक्तिथी ज करे छे; ते ते अवस्थाना छए
कारकपणे आत्मा पोते परिणमे छे. भगवाननो आत्मा पोते छ कारकरूपे थईने आजे वीतरागी मुनिदशारूपे
परिणम्यो. मुनिदशामां चार ज्ञान सहित, आत्माना आनंदमां झूलतां झूलतां केटलोक काळ वीत्या पछी भगवाने
शुक्लध्याननी अप्रतिहत श्रेणी मांडीने केवळज्ञान प्रगट कर्युं.
ते छोडवा जेवा छे; ए बंने भावो अशुद्धभावना पडखा छे, तेनाथी धर्म थतो नथी. धर्म तो आत्माना
शुद्धभावथी थाय छे.
छे; बीजुं तो भले आवडे के न
आवडे पण आ वात तो जरूर
समजवा जेवी छे. आ समज्या
विना कल्याण थवानुं नथी. आ
समजशे तो ज भवथी नीवेडा
आवशे.