Atmadharma magazine - Ank 115
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः १४८ः आत्मधर्मः ११प
त्रिकाळ एवी ज स्थिति छे के पहेलां आत्मध्यानमां सातमुं गुणस्थान प्रगटे; अने पछी विकल्प ऊठतां छठ्ठुं
गुणस्थान आवे. मुनिओ आनंदकंद आत्मामां झूले छे, तेमने त्रण प्रकारना कषायोनो तो नाश थई गयो छे,
मात्र अत्यंतमंद संज्वलन कषाय रह्यो छे, तेथी वस्त्रादि ग्रहणनो तीव्र कषायभाव तेमने होतो ज नथी.
मुनिओनी दशा त्रणेकाळे दिगंबर ज होय छे. अनादि जैनशासनमां मुनिओनी आवी ज सहज दशा होय छे.
मन वचन–कायाथी करवुं–कराववुं ने अनुमोदवुं एम नवे प्रकारथी परिग्रह छूटी जाय छे, पछी ज मुनिदशा होय
छे. जो अंतरमां परिग्रहनुं शल्य पडयुं होय तो मुनिदशा होती नथी.
लोको तो आत्माने भूलीने बहारमां दीक्षा मानी बेठा छे. परंतु दीक्षा तो आत्मशिक्षापूर्वक होय छे. दीक्षा
अने परिषहमां मुनिओने कष्ट नथी पण आत्मानी अपूर्वशांति छे. प्रतिकूळ–प्रसंग होय ने तेमां कष्ट लागे तेनुं
नाम परिषह नथी, कष्टनो भाव तो द्वेष छे–पाप छे. गमे तेवा प्रसंग वखते राग–द्वेषनो विकल्प न थाय ने
चैतन्यमां लीनता टकी रहे तेनुं नाम परिषह छे. आवो परिषह मार्गथी अच्युतपणानुं अने निर्जरानुं कारण छे.
बहारमां परिषहना गमे तेवा निमित्तो वखते आत्मानी पर्यायमां दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी अच्युतपणुं रहे ने
शुद्धता वधती जाय–एनुं नाम परिषह छे. कयां मुनिवरोनो आवो परिषह! अने कयां अज्ञानीए मानेलो
परिषह! प्रतिकूळ संयोग बने, अने राग–द्वेषनी वृत्ति थाय ते कांई परिषह नथी. पण ते वखते आत्मानी
वीतरागी शांतिना अनुभवमांथी न खसवुं तेनुं नाम परिषह छे. अहोहो! दर्शन–ज्ञान–चारित्रना वीतरागी
आनंदमां झूलतो मुनिमार्ग छे, ते आनंदना अनुभवमांथी न खसवुं ते परिषह छे. परिषहमां मुनिओने दुःख
नथी पण आनंद छे.
जुओ, आ वात चौद ब्रह्मांडमां सर्वज्ञ परमात्माथी रजीस्टर थई गयेली छे. अनंत तीर्थंकरो आवो
ज मार्ग आदरीने मुक्ति पाम्या छे, अने आवो ज मार्ग जगतने कही गया छे. अत्यारे महाविदेहमां पण
आवो ज मार्ग धोखबंध चाली रह्यो छे. बधा दिगंबर संतो पण आ एक ज मार्ग कही गया छे,
कुंदकुंदाचार्यदेव, समंतभद्राचार्यदेव, पद्मनंदी मुनिराज के धरसेनाचार्यदेव वगेरे कोई पण मुनि ल्यो,–ते
बधानी एक ज धारा चाली आवे छे, तीर्थंकरो अने संत मुनिओए जे वात करी छे ते ज वात अहीं
कहेवाय छे. मुक्ति करवी होय तो जगतने आ वात मान्ये छूटको छे, आ सिवाय बीजा कोई मार्गे
त्रणकाळमां कोई जीवनी मुक्ति थती नथी.
नेमिनाथ भगवानने आत्मज्ञान हतुं अने पोताने खबर हती के ‘मारे आ भवमां ज अनादि संसारनो
अंत थवानो छे अने हवे मारी सादि–अनंत सिद्धदशानी शरूआत थवानी छे; हवे मारे नवो भव करवानो नथी,
आ छेल्लो ज अवतार छे.’ आवा भगवानने वैराग्य थयो अने दीक्षा लीधी. अहो! तीर्थंकरना वैराग्यनी शुं
वात! वैराग्य थया पछी तेओ संसारमां रोकाता नथी. आजे भगवानना वैराग्यनो अद्भुत प्रसंग छे. वैराग्य
थतां ज भगवान तो दीक्षा लईने वनमां चाल्या गया. भगवान बहारना आम्रवनमां गया. ए तो संयोगनुं
कथन छे, खरेखर तो जंगलमां अंतरना चैतन्यवनमां–ज्यां अपूर्व ज्ञान अने आनंदरूपी आंबा पाके एवा
आम्रवनमां भगवान गूम थई गया....अंतरनी चैतन्यगुफामां भगवाने प्रवेश कर्यो....वन–जंगलमां विचरतां
भगवानने दुःख न हतुं पण आत्माना आनंदनी मोज हती, अंतरमां शांतिना शेरडा छूटता हता. अज्ञानीने तो
भगवानना ए आनंदनी कल्पना पण कयांथी आवे?
बधाय तीर्थंकर भगवंतोने दीक्षा पछी तरत आत्मध्याननी अपूर्व जागृतिमां सातमुं अप्रमत्त
गुणस्थान तेम ज मनःपर्ययज्ञान प्रगटे छे; अने तीर्थंकरोने क्षपकश्रेणी ज होय छे; तेमने सातमुं अने
छठ्ठुं गुणस्थान अनेकवार बदल्या करे पण उपशमश्रेणी न होय, सीधी क्षपकश्रेणी ज होय छे. अहो!
छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने मुनिओ आत्माना सहज आनंदमां झूले छे, हालतां–चालतां तेमज आहार
लेतां लेतां पण वारंवार निर्विकल्प अप्रमत्तदशा थई जाय छे, हाथमां आहारनो कोळिओ होय ने मुनि
तो निर्विकल्प थईने अंदर चैतन्यगोळानो स्वाद लेता होय. प्रमाद दशामां मुनिओ लांबो काळ रहेता
नथी. मुनिओने आत्मजागृति एवी वधी गई छे के ऊंघ ऊडी गई छे, एक साथे लांबो काळ निद्रा होती
नथी, निद्रानो काळ बहु अल्प छे, एक कलाक पण पूरी निद्रा होती नथी केम के छठ्ठा गुणस्थाननो काळ
ज अल्प छे. निद्रा ओछी छे ते कारणे कांई कष्ट नथी पण अंदरमां आत्मजागृतिनो अपूर्व आनंद छे.
अरे, अल्पकाळ निद्रा