Atmadharma magazine - Ank 115
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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द्वितीय वैशाखः २४७९ः १४७ः
मुनि थया पहेलां पण ‘हुं’ अनंतगुणधाम चिदानंद पवित्र छुं’ एवी आत्मद्रष्टिपूर्वक भगवान क्यारेक
क्यारेक निर्विकल्प अनुभव करता हता. ते वखते हजी अस्थिरतानो राग हतो, हवे मुनि थया पछी तो
भगवानने अस्थिरतानो राग पण छूटी गयो; अने वारंवार आत्मामां लीन थईने निर्विकल्प आनंदनो
अनुभव करवा लाग्या. मुनिदशामां भगवानने वन–जंगलना कष्ट न हता; पण भगवान तो आत्माना
आनंदमां झूलता हता. अहो! वीतरागी चारित्रदशामां मुनिवरोने कष्ट नथी, पण परम आनंद छे. बहारमां कष्ट
वेठवां तेने अज्ञानी लोको संवर ने तप माने छे परंतु संवर अने तप तो अंतरनी वीतरागी दशामां छे तेने
तेओ जाणता नथी. भगवाने तो तो स्वरूपनां आनंदमां झूलतां झूलतां आत्मामांथी ज संवर अने तप काढया
हता. जुओ, आ भगवाननी दीक्षा! दीक्षा कल्याणक कहो, के तप कल्याणक कहो, मोक्षमार्ग कहो; मुनिदशा कहो,
सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्रनी एकता के वीतरागता कहो–तेवी दशा भगवाने पोताना आत्मामांथी आजे प्रगट
करी, तेनो आ महोत्सव छे.
अहो! परमानंदमय सिद्धदशाना कारणरूप एवा चारित्र अने तप पण सुखदायक छे, तेने बदले मूढ
जीवो ते चारित्र अने तपने दुःखरूप ने कष्टदायक मानीने तेनो अनादर करे छे. चारित्रवंत मुनिराजने देखीने
जेने करुणाथी एम विचार आवे के ‘अरेरे! आ बिचारा मुनिने बहु दुःख छे’–तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे,
मुनिनी अंर्तदशानुं तेने भान नथी. अरे! चारित्र तो आनंददायक छे, चारित्र अने तपमां मुनिओने किंचित्
पण कष्ट नथी, मुनिओ तो आत्माना आनंदमां झूले छे–अंतरना उपशमरसना सागरमां आत्मा झूले छे–एवी
चारित्रदशा छे; अने तपमां चैतन्यनुं प्रतपन छे. क्षणे क्षणे चैतन्यनी शुद्धता अने आनंद वधता जाय एनुं नाम
तप छे. जेम गेरूना ओपथी सोनामां झलक आवे तेम अंतरमां एकाग्रतारूपी ओपथी चैतन्यनुं प्रतपन थवुं–
चैतन्यनुं शोभवुं–चैतन्यनी उग्रता थवी तेनुं नाम तप छे, तेमां चैतन्यना आनंदनी झलक छे. ते आनंदना
अनुभवमां एकाग्र थतां बहारना आहारनी वृत्ति छूटी जाय छे. अंतरनी आनंददशा वगर बहारमां आहारादि
छोडे ते कांई खरूं तप नथी. आत्माना भान वगर बहारमां शरीरनी नग्नदशा अनंतवार करी; अने आहार
छोडीने उपवास कर्या–पण ते चारित्र के मुनिपणुं नथी. भगवाने जे नग्नदशा धारण करी ते तो अंतरमां
आनंदना अनुभव सहित हती; मुनिपणुं होय त्यां शरीरनी नग्नदशा ज होय छे, परंतु मुनिपणुं कांई शरीरनी
दशामां नथी रहेतुं, मुनिपणुं तो आत्मानी अंतरदशामां छे. पंचमहाव्रतना शुभ विकल्पमां पण खरेखर चारित्र
नथी; आत्मानुं चारित्र जुदी चीज छे, राग जुदी चीज छे अने शरीरनी दिगंबरदशा ते जुदी चीज छे,–त्रणे चीज
जुदी छे, कोईना कारणे कोई नथी. ‘हुं वस्त्र छोडीने मुनि थाउं, हुं पंचमहाव्रत पाळुं.’ एवा शुभ विकल्पमांथी
कांई भगवाननी मुनिदशा नहोती आवी, भगवान तो अंतरस्वभावमां डूबकी मारीने तेमांथी मुनिदशा प्रगट
करी छे. जुओ, आ भगवाननी मुनिदशा! अरे जीव! आ मुनिदशानुं स्वरूप एकवार सांभळ तो
खरो.....लक्षमां तो ले!
अहा! आज तो नेमिनाथ भगवानना वैराग्यनो प्रसंग जोईने अने राजीमतीनी वैराग्यभावना
सांभळीने आंखमां आंसु आवी जता हता....आज तो भगवानना वैराग्यनो अद्भुत देखाव नजर सामेथी
खसतो नथी. जाणे नजर सामे भगवान दीक्षा लेता होय! एवुं लागे छे. आ सौराष्ट्र देशमां ज गीरनार उपरना
सहेस्रावनमां भगवाने जे दीक्षा लीधी तेनी अहीं स्थापना कराय छे....जुओ, अहीं सहेस्रावनमां भगवान दीक्षा
ल्ये छे! जाणे भगवान पोते साक्षात् पधार्या होय–एवुं लागे छे. (गुरुदेवना आ उद्गारोने हजारो श्रोताओए
घणा हर्षपूर्वक तालीओथी वधाव्या हता.) अहो! आ वन पण कुदरती सहेसावन जेवुं लागे छे. गीरनारनुं
सहेस्रावन तो अहींथी प०–६० कोस दूर छे परंतु अहीं तो दूरने पण नजीक लावी दीधुं. भगवाने तो लगभग
८प००० वर्ष पहेलां दीक्षा लीधी हती. परंतु रुचिना बळे काळनुं अंतर काढी नाखीने भक्तो कहे छे के, भगवान
अत्यारे ज आ आम्रवनमां दीक्षा ल्ये छे; ८प००० वर्ष पहेलां गीरनारना आम्रवनमां भगवाननी दीक्षानो जेवो
प्रसंग थयो तेवुं ज अत्यारे अहीं बनी रह्युं छे. आ आपणा आम्रवनमां आपणी सामे ज भगवान दीक्षा ल्ये
छे.....
अहो, आजे नेमिनाथ भगवान भावथी तेमज द्रव्यथी दिगंबर थया....धन्य ते दशा! धन्य ते घडी!
निर्ग्रंथ थया पछी भगवान आत्मध्यानमां बेठा; अने तरत ज पहेलां सातमुं अप्रमत्त गुणस्थान प्रगटयुं.
मुनिदशानी