Atmadharma magazine - Ank 115
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः १४६ः आत्मधर्मः ११प
अनुकूळ अने आ मने प्रतिकूळ’ एवो विकल्प ज नथी ऊठतो. कोई पण संयोग मने इष्ट–अनिष्ट नथी एवो
वीतरागी अभिप्राय तो पहेलेथी हतो, ने ते उपरांत हवे चैतन्यमां लीनता थतां एवी वीतरागीपरिणति थई
गई के कोई पण अनुकूळ–प्रतिकूळ प्रसंगमां राग–द्वेषनी वृत्ति पण ऊठती नथी.–आवी मुनिदशा छे, भगवाने
आजे आवी दशा प्रगट करी.
मुनिदशामां भगवानने तो आत्माना सहज आनंदनी अलौकिक खुमारी हती. चैतन्यसमुद्रमांथी
आनंदनां झरणां झरता हता. जेम डुंगरमांथी शीतळ निर्झरणुं झरतुं होय तेम भगवानने अंदरना चैतन्य–
डुंगरमांथी आनंदनां निर्झरणां वहेता हता.....परम शांत रसनी धारा झरती हती....अपूर्व अमृतना फूवारा
स्फूरता हता. अहो! भगवाने अंतरमां ऊतरीने आनंदना दरियामां डूबकी मारी. मुनिदशामां भगवानने एवा
आनंदनो अनुभव हतो के मोटा इन्द्रो अने चक्रवर्तीओने पण तेटलो आनंद न होय; इन्द्र वगेरे जे सम्यग्द्रष्टि
छे तेमने तेवा अतीन्द्रिय आनंदनो अंश होय छे, परंतु मुनिदशा जेटलो आनंद तेमने नथी होतो; मुनि जेवा
आनंदनो नमूनो होय छे पण मुनिदशा जेटलो आनंद नथी होतो. मुनिने तो आनंदनो अनुभव घणो वधी गयो
छे, मुनिओ तो आत्मा आनंदसागरमां झूले छे. अहो, ए आनंदसागरमां झूलनारा संतोनी शी वात? ते तो
पंच परमेष्ठी पदमां भळी गया छे ने केवळज्ञान लेवानी तैयारी छे.
मारा आत्माने त्रिकाळीस्वभावथी एकत्व छे ने परथी पृथकत्त्व छे,–आम स्वभावनी भावना करीने
तेमां एकाग्रतावडे भगवान आनंदनो अनुभव लेता हता. आत्मा आनंदनो डुंगर छे, तेमां अंतर्लीनता वडे
ध्यानरूपी छरी मारीने भगवाने अतीन्द्रिय आनंद प्रगट कर्यो. चोथा गुणस्थानवाळा इन्द्र वगेरेने मति–श्रुत–
अवधि त्रण–ज्ञान होय, अने पांचमां गुणस्थानवाळा कोई साधारण श्रावक होय–अरे! तिर्यंच होय ने तेने
अवधिज्ञान न पण होय, छतां इन्द्रना आनंद करतां ते पांचमा गुणस्थानवाळा तिर्यंचनो आनंद घणो वधी
गयो छे. अने छठ्ठा–सातमा गुणस्थानवाळा मुनिने तो घणो ज आनंद वधी गयो छे, अंतरमां घणी लीनता वडे
ते तो आनंदना अनुभवमां मग्न छे. कयांय बहारना संयोगमांथी आनंद नथी आवतो पण अंतरमां आत्मा
पोते आनंदनो दरियो छे तेमां डूबकी मारीने जेटलो एकाग्र थाय तेटलो आनंदनो अनुभव थाय छे. बहारना
संयोगमांथी आनंद आवतो होय तो तो इन्द्रने सौथी वधारे आनंद होय,–पण एम नथी. मुनिओने खुल्ला
शरीरे जंगलमां रहेवुं, टाढ–तडका सहन करवा वगेरेनुं किंचित् दुःख नथी, मुनिओ तो आत्माना आनंदमां एवा
मशगूल छे के बहारना संयोग उपर लक्ष जतुं नथी; अने लक्ष जाय तो त्यां राग–द्वेष थतो नथी. पहेलां पोतानी
स्वतंत्र पर्यायनी कमजोरीथी राग–द्वेष थता हता, हवे मुनिदशामां स्वभावनी एकाग्रताना पुरुषार्थथी ते राग–
द्वेष थता नथी.
जेम नाळियेरमां अंदरनो सफेद–मीठो गोळो बहारना छोतां–काचली तेमज राती छालथी जुदो छे; तेम
भगवान पोताना भिन्न चैतन्य तत्त्वनी भावना करता हता के अहो! मारो आनंदकंद चैतन्य गोळो आ
शरीररूपी छोतांथी, कर्मरूपी काचलाथी तेमज रागरूपी रातपथी जुदो छे.–आम भिन्न चैतन्यनी भावना भावीने
भगवान तेमां एवा गुम थई जता के ‘हुं देहमां छुं के हुं तीर्थंकर छुं, हुं मुनि छुं ने केवळज्ञान प्रगट करुं’ एवा
कोई विकल्पो रहेता न हता. आत्माना आनंदना अनुभवमां आवी लीनता थया वगर कोई जीवने मुनिदशा
होती नथी; अने अंतरमां आवी मुनिदशा थतां बहारमां शरीर उपर वस्त्रादिनुं ग्रहण होतुं नथी. अंतरमां तो
राग–द्वेष रहित भावनिर्ग्रंथता अने बहारमां वस्त्रादि परिग्रह रहित द्रव्य निर्ग्र्रथता, आ प्रमाणे भावे अने
द्रव्ये निर्ग्रंथदशा थया वगर त्रणकाळमां कोई जीवने मुनिपणुं होतुं नथी, अने मुनिदशा वगर केवळज्ञान के मुक्ति
थती नथी.
भगवानने खबर हती के हुं आ ज भवमां केवळज्ञान प्रगट करीने तीर्थंकर थवानो छुं, हुं आ भवमां ज
सिद्ध थनार चरमशरीरी छुं. परंतु चारित्रदशा वगर केवळज्ञान थतुं नथी. हुं हवे मुनि थईने वीतरागी– चारित्र्य
अने केवळज्ञान प्रगट करवा मागुं छुं. वैराग्य थतां भगवान आवी भावनाओ भावता हता. मारो आत्मा
पवित्र ज्ञायकस्वरूप छे, रागादिभावो तो मलिन छे ने देह अशुचीमय छे. आवी अशुची भावनामां शरीर वगेरे
प्रत्येनो द्वेषभाव नथी, पण चैतन्यना पवित्र स्वभावनी साथे मेळवीने शरीरादिकने अशुची कह्यां छे. ज्यां
चैतन्यस्वभावमां लीनता थई त्यां शरीर प्रत्ये किंचित् ग्लानि नथी, आनुं नाम खरी अशुचीभावना छे. परद्रव्य
प्रत्ये ग्लानिनो भाव आवे तो ते द्वेष छे.