रनी निर्ग्रंथदशा थई तेना आधारे कांई मुनिपणुं नथी; हा, मुनिपणा वखते शरीरनी तेवी दशा होय छे जरूर,
पण मुनिपणुं तो आत्माना अवलंबने प्रगटेली वीतरागीदशामां छे. चैतन्यना अनुभवमां लीन थतां वीतरागी
मुनिदशा प्रगटी ने रागनी उत्पत्ति ज न थई, त्यां ‘आत्माए रागने छोडयो’ एम व्यवहारथी कहेवाय छे;
खरेखर राग उत्पन्न थयो अने तेने छोडयो–एम नथी. वळी राग छूटतां रागना निमित्तरूप वस्त्रादि परिग्रह
पण स्वयं छूटी गयो, त्यां आत्माए ते परिग्रहने छोडयो एम कहेवुं ते उपचार मात्र छे, खरेखर ते वस्त्रादिनी
क्रियानो कर्ता आत्मा नथी.
ताणो पण तेमने होतो नथी; अंर्तस्वरूपमां झूलतां झूलतां राग सहेजे घटी जाय छे तेथी वस्त्रादिना ग्रहणनी
वृत्ति ज अंतरमां ऊठती नथी ने बहारमां वस्त्रादिनुं ग्रहण होतुं नथी. हजी जेने आवी मुनिदशानुं भानपण न
होय तेने तो सम्यग्दर्शन पण होतुं नथी, तो बार भावना के मुनिपणुं तो कयांथी होय?
अंर्तद्रष्टिपूर्वक आत्मामां विशेष लीनता थतां अस्थिरतानो राग छूटी जाय तेनुं नाम भावना छे. अने ते संवर
छे. ‘हुं त्रिकाळी ज्ञायकतत्त्व छुं, प्रमत्त–अप्रमत्त एवा भेद पण मारा त्रिकाळी स्वरूपमां नथी’–आवी द्रष्टि
पहेलां थवी जोईए, पछी ज तेमां लीनताथी मुनिदशा प्रगटे छे. आवी मुनिदशामां झूलता भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेव समयसारनी छठ्ठी गाथामां कहे छे के–
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव।।
आत्माने अनुभवुं छुं.–जुओ आ मुनिदशा! नेमिनाथ भगवाने आजे आवी मुनिदशा प्रगट करी. ‘हुं ज्ञायक
चिदानंद छुं’ एवी द्रष्टि तो हती, पछी तेमां लीन थईने भगवाने मुनिदशा प्रगट करी. ते मुनिदशा कयांय
बहारथी नथी प्रगटी, पण अंतरमां चिदानंदपिंड आत्माना अनुभवथी ते दशा प्रगटी छे. अहो! ए मुनिदशाना
आनंदनी शुं वात? धन्य ते दशा! धन्य ते अवसर!
अशरण वगेरे बार भावना भावीने भगवाने दीक्षा लीधी. अस्थिरतानो पण राग छोडीने भगवान मुनि थया.
बधाय तीर्थंकर भगवंतो वैराग्य थतां बार भावना भावे छे. पूर्वे शांतिनाथ भगवान वगेरे तीर्थंकरोए पण
आवी भावना भावीने दीक्षा लीधी हती. अत्यारे महाविदेह क्षेत्रमां सीमंधर भगवान बिराजे छे तेमणे पण
दीक्षा पहेलां आ बार भावना भावी हती. ज्ञानानंदस्वरूपना अवलंबने ज आ बार भावना यथार्थ होय छे.
धु्रवस्वरूपनी द्रष्टिपूर्वक तेमां लीनता वडे अध्रुव एवा रागादिभावो छूटी जाय–तेनुं नाम खरी अनित्यभावना
छे. बारेय भावनामां अवलंबन तो एक आत्मानुं ज छे.
छे.–आ प्रमाणे पोताना ध्रुवस्वभावना अवलंबने ज साची अशरणभावना होय छे. जेने अंदरमां चैतन्यनुं
शरण भास्युं होय तेने ज अशरणभावना यथार्थ होय. शांतिनाथ, कुंथुनाथ ने अरनाथ ए त्रणे तीर्थंकरो तो
चक्रवर्ती हता पण अंदर भान हतुं के आ छ खंडना राजवैभवमां कयांय पण मारुं शरण नथी, मारा चिदानंद
आत्मा सिवाय जगतमां बीजुं कोई मने शरणरूप नथी, मारो ज्ञायकमूर्ति आत्मा ज मने शरणरूप छे. आनंदकंद
चैतन्य ज्योत अंतरमां भरी छे, सिद्धस्वरूपी चैतन्यसामर्थ्य मारी आत्मशक्तिमां भर्युं छे, ते ज मने शरण छे.
सीमंधर भगवान वर्तमान बिराजे छे तेओ अने बीजा अनंता तीर्थंकरो आवी भावना भावीने मुनि थया
हता. शरणभूत एवा चैतन्यनुं अवलंबन लईने तेमां लीन थतां, बहारमां ‘आ मने