Atmadharma magazine - Ank 115
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः १४४ः आत्मधर्मः ११प
नेमिनाथ भगवाननी दीक्षा
सोनगढमां मानस्तंभ–प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंगे भगवाननी
दीक्षा पछी आम्रवनमां पू. गुरुदेवश्रीनुं खास प्रवचन.
वीर सं. २४७९ चैत्र सुद आठम–रविवार.
‘वंदितु सव्वसिद्धे......’ ए सूत्रद्वारा पू. गुरुदेवश्रीए
आ प्रवचननुं खास मंगलाचरण कर्युं हतुं.
नेमिनाथ भगवानना पंचकल्याणक चाले छे. तेमां आजे भगवाननी दिक्षानो प्रसंग छे. भगवाने दीक्षा
लीधी ते दिवसे श्रावण सुद छठ्ठ हती, आजे आपणे पण आरोपथी श्रावण सुद छठ्ठ छे, ने भगवाने आ
आम्रवनमां दिक्षा लीधी छे. भगवाने केवी दिक्षा लीधी ते हवे कहेवाय छे.
श्री नेमिनाथ भगवान आत्माना भानसहित स्वर्गमांथी शिवादेवी मातानी कूंखे आव्या हता.
मातानां पेटमां सवानव मास रह्या त्यारे पण देहथी पार आत्माना चिदानंदस्वभावनुं भान हतुं.
सम्यग्दर्शन अने मति–श्रुत–अवधि ए त्रण ज्ञान तो भगवानने पहेलेथी ज हता. हुं ज्ञानानंद आत्मा छुं.,
अनंत ज्ञान–दर्शन–आनंद अने वीर्यनी शक्तिथी भरपुर छुं–आम आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय ते
सम्यग्दर्शन छे. अखंड आनंदमूर्ति आत्मा, रागथी ने परथी भिन्न छे–एनी प्रतीत अने अनुभव पछी ज
मुनिदशा होय छे. भगवानने एवुं सम्यग्दर्शन तो पहेलेथी ज हतुं, ने लग्नप्रसंगे वैराग्य थतां आत्माना
अवलंबने भगवान अनित्य वगेरे बार भावना भाववा लाग्या. बार भावना तो संवरनिर्जरानुं कारण
छे; ‘शरीरादि अनित्य छे’ एम एकला परना लक्षे अनित्यभावना यथार्थ होती नथी, पण नित्य एकरूप
एवा चैतन्यस्वभावना अवलंबने शरीरादि अनित्य पदार्थो प्रत्येनो राग छूटी जतां खरी अनित्यभावना
होय छे. ‘अनित्यभावना’ एम कहेवाय पण खरेखर तेमां ‘अनित्य’ नुं अवलंबन नथी. पण नित्य
एवा धु्रवस्वभावनुं अवलंबन छे. सम्यग्दर्शन वगर बार भावना यथार्थ होय नहीं भगवाने केवी बार
भावना भावी हती तेनी अज्ञानीने खबर पडे नहि. भगवाने तो सम्यग्दर्शन सहित चिदानंदस्वभावना
अवलंबने बार भावना भावी हती.
अहो! हुं चिदानंद नित्य छुं, ने रागादिक क्षणिक अनित्य छे, ते मारा कायमी स्वरूपमां टकनार नथी;
शरीरादिनो संयोग अने राग ते कृत्रिम उपाधि अने दुःखरूप छे, मारो ज्ञानानंद स्वभाव तो अकृत्रिम नित्य
आनंदकंद छे.–आवी भावनाथी शरीरादि प्रत्येनो राग घटी जाय तेनुं नाम भावना छे. तेमां जे शुभराग छे ते
खरेखर भावना नथी. पण स्वभावना अवलंबने जे वीतरागभाव थयो ते ज खरी भावना छे, ने ते ज संवर–
निर्जरानुं कारण छे.–भगवाने आवी भावना भावी हती.
अज्ञानी जीवोनी द्रष्टि बहारना ग्रहण–त्याग उपर छे, पण खरेखर परपदार्थनुं ग्रहण के त्याग
आत्मामां कदी नथी. आत्मामां ‘त्यागोपादन शून्यत्व’ स्वभाव छे. एटले ते पर वस्तुना ग्रहण–
त्यागथी त्रिकाळ शून्य छे आत्माए वस्त्रने छोडयुं अने वस्त्र छोडवाथी मुनिपणुं थई गयुं–एम
अज्ञानी माने छे, पण ते बंने वात जूठी छे. आत्मा वस्त्रथी तो त्रणेकाळ खाली ज छे, आत्माए
पोतामां वस्त्रनुं ग्रहण कदी कर्युं ज नथी, तो पछी आत्मा वस्त्रने छोडे ए वात कयां रही? अने वस्त्र
छूटीने शरी–