
करतां मुक्ति थई जशे’–तो ते जीव व्यवहारमूढ मिथ्याद्रष्टि छे. अरे भाई! चैतन्यना निश्चयस्वभावना
भान वगर आवो शुभराग तो तें अनादिकाळथी कर्यो छे,–एमां अत्यारे तें नवुं शुं कर्युं? वळी अभव्यजीव
पण एवो व्यवहार तो करे छे तो तेनामां अने तारामां फेर शुं पडयो? पूर्वे अनंतवार तें पण एवो
व्यवहार कर्यो छतां ते मोक्षनुं कारण न थयो तो अत्यारे कयांथी थशे? माटे समज के मोक्षमार्ग तो
निश्चयस्वभावना आश्रये ज छे. ‘पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय’ एम नथी. एकलो शुभरागरूप
व्यवहार अनादिथी तुं करतो आव्यो छे तो तेमांथी कया रागने तुं ‘पहेलो’ कहीश? तारो मानेलो व्यवहार
तो अनादिनो रूढ छे, ते खरेखर व्यवहार नथी पण व्यवहाराभास छे. निश्चय प्रगटया वगर व्यवहार कोने
कहेवो? आत्माना भूतार्थ स्वभावनो आश्रय करीने निश्चय श्रद्धा–ज्ञान प्रगट कर्या त्यारे शुभरागने
उपचारथी व्यवहार कह्यो अने पूर्वना रागने भूतनैगमनयथी व्यवहार कह्यो. पण निश्चय विना व्यवहार
केवो? हजी जेने प्रमाणज्ञान ज थयुं नथी तेने नय कयांथी होय? निश्चयनयथी भूतार्थ स्वभावनुं ज्ञान
करतां प्रमाणज्ञान थयुं त्यारे रागना ज्ञानने व्यवहारनय कह्यो.–आ रीते निश्चयपूर्वक ज व्यवहार होय छे.
निश्चयस्वभावना भान वगर एकला शुभरागने अमे व्यवहार नथी कहेता, ते तो अनादिनो व्यवहाराभास
छे, एवुं तो अभव्यने पण होय छे. ‘पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय’ एम माननार ना अभिप्रायमां,
अने अनादिना मिथ्याद्रष्टि जीवना अभिप्रायमां कांई फेर नथी. बंने व्यवहारमूढ छे. वळी, ‘पहेलो व्यवहार
ने पछी निश्चय’–एवी मान्यता अने ‘शुभरागथी परीत संसार थई जाय’–एवी मान्यता,–ए बंनेमां
व्यवहारमूढतानो अभिप्राय एक सरखो ज छे.
कुमारना जीवे सुमुखगाथापतिना भवमां मुनिने आहारनुं दान दीधुं तेथी तेने परीत संसार थई गयो,–एवा
प्रकारना दस द्रष्टांतथी तेओ शुभरागथी परीत संसार थवानुं मनावे छे, पण ते मोटी भूल छे. अंतरमां
चैतन्यस्वभावना अवलंबन विना कदी पण भवकट्टी थाय ज नहि. राग तो संसारनुं कारण छे. तेनाथी भवकट्टी
केम थाय? वळी मिथ्याद्रष्टिने तो अनंत संसारना कारणरूप अनंतानुबंधीनो भाव ऊभो छे, तेने मिथ्या–
द्रष्टिपणामां परीत संसार थाय ज नहीं. चैतन्यस्वभावना अवलंबने ज परीतसंसार थाय छे तेने बदले दया–
दानना शुभरागथी परीतसंसार थवानुं मानवुं ते पण व्यवहार मूढता ज छे. दया–दानना शुभभाव तो
मिथ्याद्रष्टि जीवे पूर्वे अनंतवार कर्या छे छतां तेने परीतसंसार केम न थयो?–माटे ते शुभभाव परीतसंसारनुं
कारण नथी. आत्माना परमार्थ स्वभावनी द्रष्टि जीवे पूर्वे कदी प्रगट करी नथी, एवी अपूर्वद्रष्टि प्रगट करवी ते
ज परीतसंसारनुं कारण छे. दया–दाननो शुभभाव ते तो औदयिकभाव छे, ते पोते संसार छे, तो तेनाथी
संसारनो नाश केम थाय?–न ज थाय.
छे; तेने बदले एकला व्यवहारना आश्रयथी जे मोक्षमार्ग माने छे ते व्यवहारमूढ छे. एवो व्यवहार तो
अनादिनो चाल्यो आवे छे तेथी ते अनादिरूढ छे. अज्ञानीओ कहे छे के देव–गुरु–शास्त्रनां श्रद्धा–ज्ञान तथा
पंचमहाव्रत वगेरे शुभरागरूप व्यवहार ते पहेलो अने पछी तेनाथी निश्चय पमाय. तो तेने अहीं
आचार्यभगवान कहे छे के अरे भाई! तुं तो अनादिरूढ एवा व्यवहारमां ज मूढ छे, तारा मानेला
व्यवहारने तो अमे व्यवहार पण नथी कहेतां, ते तो व्यवहाराभास छे. आत्माना भान वगर तीव्र अने मंद
राग तो अनादिकाळथी जीव करतो ज आव्यो छे. छतां तेने जे मोक्षमार्गनुं कारण माने छे ते जीव
व्यवहारमां मूढ छे.
दिगंबर जैन परंपराथी श्वेतांबरो जुदा पडया. तेओ आत्माना भान वगर मिथ्याद्रष्टिने पण दया–दान वगेरेना
शुभपरिणामथी परीत संसार थई जवानुं कहे छे ते एकली व्यवहार–