Atmadharma magazine - Ank 115
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः १प२ः आत्मधर्मः ११प
प्रधानद्रष्टि छे, अहीं तेने ‘अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ’ कहीने आचार्यदेव यथार्थ वस्तुस्थिति समजावे छे के अरे
भाई! कया व्यवहारने तुं पहेलो कहे छे? दया–दान वगेरेनो शुभभाव शुं अनादिकाळमां जीवे नथी कर्यो?
मिथ्याद्रष्टिपणे शुभराग तो पूर्वे अनादिथी करतो ज आव्यो छे, तो तेने ‘पहेलो’ केम कहेवाय? अने तेनाथी
परीतसंसार पण केम थाय? आत्माना भूतार्थ स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या विना परीतसंसार
थाय ज नहि, अने रागने व्यवहार कहेवाय नहि.
दिगंबर अने श्वेतांबरनी द्रष्टिमां आ मूळभूत तफावत छे, बंने संप्रदाय वच्चे आ मोटो सिद्धांत भेद छे.
आ वात बराबर समजीने नक्की करवा जेवी छे.
दिगंबर संतो कहे छे के ‘निश्चयपूर्वक ज व्यवहार होय निश्चय वगरना एकला रागने व्यवहार कहेवाय
नहि.’–आ तो यथार्थ वस्तुस्वरूप छे.
श्वेतांबरमां कहे छे के ‘व्यवहारनय पहेलो परिणमे अने पछी निश्चय होय.’–आमां महा विपरीत द्रष्टि
छे. तेनो खुलासो करतां आचार्यदेव कहे छे के जे व्यवहार अनादिकाळथी चाल्यो आवे छे तेने पहेलो केम
कहेवाय? व्यवहारने पहेलो मानवो ते अनादिना व्यवहारमां ज मूढता छे.
वळी दिगंबर संतो कहे छे केः भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवई जीवो एटले के भूतार्थनो आश्रय
करनार जीव ज निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि छे.
तेने बदले श्वेतांबरमां एम कहे छे के ‘व्यवहारी सो समकिती कहे भाष्य व्यवहार.’
–आमां पण मोटो द्रष्टिभेद छे.
दिगंबर संतो कहे छे के ‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी.’
एनाथी विरुद्ध श्वेतांबरमां एम कहे छे के ‘बहु दळ दीसे जीवनां जी व्यवहारे शिवयोग.’
दिगंबर जैनधर्मना सत्य सिद्धांतनो विरोध करीने आजथी लगभग ३०० वर्ष पहेलां ८४ दिग्पट
बोलमां श्वेतांबर मतनुं प्रतिपादन करतां श्री यशोविजयजीए कह्युं छे के –
‘निश्चयनय पहलें कहे पीछें ले व्यवहार,
भाषाक्रम जाने नहि जैन मार्ग को सार.
तातें सो मिथ्यामति जैन क्रिया परिहार,
व्यवहारी सो समकिती कहे भाष्य व्यवहार.
जा नय पहलें परिणमे सोई कहैं हित होई,
निश्चय कयों धुरि परिणमे? सुखम मति करी जोई.’
जुओ, आ कोण कहे छे?–श्वेतांबरो तरफथी श्री यशोविजयजीए दिगंबरोनी टीका करतां आ वात करी
छे; तेमां ते पहेलो व्यवहार ने पछी निश्चय–एम कहे छे अने तेने ते सूक्ष्ममति माने छे; अहीं दिगंबर संतोना
कथनमां तेनो जवाब आपे छे के अरे भाई! कया व्यवहारने तारे पहेलो कहेवो छे? मंदकषायने तारे पहेलो
कहेवो होय, तो अमे कहीए छीए के ते तो अनादिथी रूढ छे, जीव शुभराग तो अनादिथी करतो आव्यो छे, तेने
जे मोक्षमार्ग माने छे तेने अमे व्यवहारमूढ कहीए छीए; पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय–एम मानवुं ते
सूक्ष्ममति नथी पण स्थूळ व्यवहारमूढता छे.
वळी ‘पहेलां व्यवहारनय परिणमे’ ए वात ज जूठी छे केमके अज्ञानीना मिथ्याज्ञानमां साचा नय होय
ज नहि. नय तो सम्यक्श्रुतज्ञाननो प्रकार छे. निश्चयनयथी भूतार्थस्वभावनो आश्रय कर्यो त्यारे सम्यक्श्रुत थयुं,
ते ज्ञान रागने जाणे त्यारे तेमां व्यवहार नय होय छे. आ सिवाय मिथ्याद्रष्टिने व्यवहारनय होतो नथी.
अज्ञानीनो व्यवहार ते व्यवहाराभास छे. स्वभाव तरफ वळीने निश्चय प्रगट करे तो व्यवहारने व्यवहार
कहेवाय. जैनधर्मनो कोई पण बोल ल्यो तेमां स्वभाव तरफ वळवानुं ज आवे छे. स्वभाव तरफ वळ्‌या विना
जैनधर्मना एकेय बोलनो यथार्थ निर्णय नहि थाय.
भाषा तो जड छे, भाषामां व्यवहार आवे तेथी कांई मोक्षमार्गमां व्यवहारनी प्रधानता थई जती नथी.
‘समजावतां भाषामां व्यवहार आवे छे माटे पहेलो व्यवहार छे ने पछी निश्चय छे’–एम जे माने छे तेनी
मान्यता जूठी छे, तेणे भाषा सामे जोयुं पण वस्तुस्वरूपने न जोयुं. वस्तुस्वरूप एवुं छे के निश्चयना आश्रये ज
मोक्षमार्गनी शरूआत थाय छे, व्यवहारना आश्रये मोक्षमार्ग छे ज नहि.