
प्रधानद्रष्टि छे, अहीं तेने ‘अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ’ कहीने आचार्यदेव यथार्थ वस्तुस्थिति समजावे छे के अरे
भाई! कया व्यवहारने तुं पहेलो कहे छे? दया–दान वगेरेनो शुभभाव शुं अनादिकाळमां जीवे नथी कर्यो?
मिथ्याद्रष्टिपणे शुभराग तो पूर्वे अनादिथी करतो ज आव्यो छे, तो तेने ‘पहेलो’ केम कहेवाय? अने तेनाथी
परीतसंसार पण केम थाय? आत्माना भूतार्थ स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या विना परीतसंसार
–आमां पण मोटो द्रष्टिभेद छे.
दिगंबर संतो कहे छे के ‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी.’
एनाथी विरुद्ध श्वेतांबरमां एम कहे छे के ‘बहु दळ दीसे जीवनां जी व्यवहारे शिवयोग.’
दिगंबर जैनधर्मना सत्य सिद्धांतनो विरोध करीने आजथी लगभग ३०० वर्ष पहेलां ८४ दिग्पट
भाषाक्रम जाने नहि जैन मार्ग को सार.
तातें सो मिथ्यामति जैन क्रिया परिहार,
व्यवहारी सो समकिती कहे भाष्य व्यवहार.
जा नय पहलें परिणमे सोई कहैं हित होई,
निश्चय कयों धुरि परिणमे? सुखम मति करी जोई.’
जुओ, आ कोण कहे छे?–श्वेतांबरो तरफथी श्री यशोविजयजीए दिगंबरोनी टीका करतां आ वात करी
कथनमां तेनो जवाब आपे छे के अरे भाई! कया व्यवहारने तारे पहेलो कहेवो छे? मंदकषायने तारे पहेलो
कहेवो होय, तो अमे कहीए छीए के ते तो अनादिथी रूढ छे, जीव शुभराग तो अनादिथी करतो आव्यो छे, तेने
जे मोक्षमार्ग माने छे तेने अमे व्यवहारमूढ कहीए छीए; पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय–एम मानवुं ते
ते ज्ञान रागने जाणे त्यारे तेमां व्यवहार नय होय छे. आ सिवाय मिथ्याद्रष्टिने व्यवहारनय होतो नथी.
अज्ञानीनो व्यवहार ते व्यवहाराभास छे. स्वभाव तरफ वळीने निश्चय प्रगट करे तो व्यवहारने व्यवहार
कहेवाय. जैनधर्मनो कोई पण बोल ल्यो तेमां स्वभाव तरफ वळवानुं ज आवे छे. स्वभाव तरफ वळ्या विना
मान्यता जूठी छे, तेणे भाषा सामे जोयुं पण वस्तुस्वरूपने न जोयुं. वस्तुस्वरूप एवुं छे के निश्चयना आश्रये ज