Atmadharma magazine - Ank 115
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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द्वितीय वैशाखः २४७९ः १प३ः
सर्वज्ञना केवळज्ञानमां भास्युं होय तेम थाय–एम जो निर्णय करवा जाय तो त्यां पण ज्ञानस्वरूपने
पकडया विना केवळज्ञाननो निर्णय थतो नथी एटले ज्ञानस्वभाव तरफ वळवानुं ज आव्युं.
क्रमबद्धपर्याय थाय छे एम कहो तो त्यां पण द्रव्य उपर ज द्रष्टि जाय छे, केमके पर्याय पर्यायमांथी
आवती नथी पण द्रव्यमांथी आवे छे; एटले द्रव्य उपर द्रष्टि गया वगर क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय पण थाय नहीं.
ए ज प्रमाणे व्यवहारने नक्की करवा जाय तो त्यां पण निश्चय विना व्यवहार होय नहीं,
निश्चयपूर्वक ज व्यवहार होय, माटे निश्चयना ज्ञानपूर्वक ज व्यवहार यथार्थ ज्ञान थाय छे. यथार्थ निश्चय
प्रगटयो त्यारे रागमां आरोप करीने तेने व्यवहार कहेवाय छे. निश्चय प्रगटया वगर एकला रागने
व्यवहार कई रीते कहेवो? व्यवहारने व्यवहार कहेवडावनार निश्चय जाग्या विना व्यवहारने ‘पहेलो’ केम
कहेवो? केम के एवो व्यवहार तो अनादिथी करी ज रह्यो छे तेथी ते तो अनादिनो रूढ छे. शुं अनादिकाळमां
रागनी मंदता नथी करी? अनंतवार करी छे. छतां मोक्षमार्गमां तेने जे पहेलां माने छे ते अनादिथी जे
व्यवहार कर्यो छे तेमां ज मूढ छे.
आचार्यदेव तेने कहे छे के अरे भाई! तुं विचार तो कर के मोक्षमार्ग तो पूर्वे कदी नहि करेल एवो अपूर्व
छे, अने तेनी शरूआत पण अपूर्वभावे थाय छे. राग तो पूर्वे अनंतवार कर्यो तेना वडे मोक्षमार्गनी शरूआत
थती नथी. आत्माए अनादिकाळथी संसारमां रखडतां देव–गुरु–शास्त्रनी व्यवहारश्रद्धा करी छे, शास्त्रनुं ज्ञान
कर्युं छे ने पंचमहाव्रत पाळ्‌यां छे, ए प्रमाणे व्यवहार–रत्नत्रय एटले के शुभराग तो अनादिथी कर्यो छे, ते
व्यवहारमां ज जे ममकार करे छे एटले के मोक्षमार्गमां व्यवहार पहेलो परिणमे–एम जे माने छे ते जीव
अनादिना रूढ व्यवहारमां मूढ छे, अनादिनी संसारदशामां तेने कांई फेर पडयो नथी, मोक्षमार्गमां निश्चय शुं
अने व्यवहार शुं–ते एकेयनुं तेने भान नथी. रागने व्यवहार कहेनारो कोण? निश्चयनुं भान करीने जे जाग्यो
ते शुभरागने व्यवहार तरीके जाणे छे. निश्चय विनानो एकलो व्यवहार तो आंधळो छे.
निश्चयस्वभावना भान वगर भले घणा प्रकारना शुभराग करे, व्रत–तप–दया–दान करे, शास्त्र भणे,
पण ते बधो अनादिरूढ व्यवहार छे. अज्ञानीओ जे रागने व्यवहार कहे छे तेने तो अहीं ‘अनादिरूढ’ कहीने
आचार्यदेवे महान सिद्धांत मूकी दीधो छे. परमार्थस्वरूप आत्माना श्रद्धा–ज्ञान तो करतो नथी ने कषायनी
मंदतामां ज लाग्यो रहीने तेनाथी परमार्थ मोक्षमार्ग प्रगटी जशे–एम जे जीव माने छे ते जीव अनादिरूढ थई
गयेला व्यवहारमां विमूढ–मिथ्याद्रष्टि छे. पहेलो व्यवहार परिणमे एम मानीने जेओ व्यवहारना आश्रयमां ज
लाग्या रहे छे. व्यवहारनो आश्रय छोडीने भूतार्थस्वभावनो आश्रय कर्या वगर कदी पण सम्यग्दर्शन के
मोक्षमार्ग थाय नहि ने मिथ्यात्व टळे नहि.
कोई कहे के पहेलां सत्यनुं श्रवण करे पछी समजाय; माटे जुओ! पहेलां व्यवहार आव्यो के नहि?–तो
कहे छे के ना; केमके चैतन्यवस्तु शरीर–मन–वचनथी ने रागथी पार छे एवी चैतन्यनी प्रतितीपूर्वक सांभळे तेने
ज ‘सांभळ्‌युं’ कहेवाय छे. जेने चैतन्यनी रुचि नथी ते जीवे आत्मानी वात अनादिथी सांभळी ज नथी. आगळ
चोथी गाथामां ज ए वात करी हती के शुद्धआत्मानी वात जीवे कदी सांभळी ज नथी. शब्दो तो काने पडया छतां
कहे छे के ‘सांभळ्‌युं ज नथी’ केम के अंदरमां ते प्रकारनी रुचि प्रगट न करी, एटले निश्चय विना व्यवहार कोनो
कहेवो? उपादान जाग्या विना श्रवणने निमित्त कोनुं कहेवुं?
प्रवचनसारना चरणानुयोगमां पण छेल्ले एम कह्युं छे के शुद्धोपयोगीओने ज मुक्ति छे. चैतन्यनो
जाणवानो स्वभाव छे, आ ज्ञेयमां आम केम?–एवो विकल्प करवानो चैतन्यनो स्वभाव नथी; तेमां वच्चे
शुभ–अशुभवृत्ति आवे ते मोक्षनुं कारण नथी. शुद्धोपयोगने ज मोक्षनुं कारण कह्युं छे. त्यां वच्चे मुनिने शुभराग
केवो होय तेनी ओळखाण करावी, पण ते शुभने कोई मोक्षनुं कारण मानी ल्ये तो कहे छे के शुभ तो मोक्षनुं
कारण नथी, मोक्ष तो शुद्धोपयोगथी ज थाय छे.
जे जीव एम कहे छे के पहेलां व्यवहार होय ने पछी निश्चय होय,–तो तेने कहे छे के कयो व्यवहार पहेलो
होय? निश्चय प्रगटया वगर शुभरागने व्यवहार तरीके जाणशे कोण? चैतन्यवस्तु तरफ वळीने तेनुं ज्ञान कर
तो व्यवहारनुं ज्ञान थाय. पण चैतन्यवस्तुने पकडवामां