Atmadharma magazine - Ank 115
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 19 of 21

background image
ः १प८ः आत्मधर्मः ११प
एने लगनी लागी छे. आ जीवना शुभरागने लीधे कांई परजीवनुं हित जतुं नथी, परजीवनुं हितअहित थवुं
तो तेना परिणामने आधीन छे; माटे हुं जगतना जीवो उपर उपकार करी दउं के देशनो उद्धार करी दउं–एम
ते मानतो नथी, पोताना आत्मानुं ज प्रयोजन विचारे छे, ने सावधान थईने अंतरमां मोक्षमार्ग तथा
जीवादितत्त्वो वगेरेनो विचार करे छे. जेने पोताना आत्मानुं हित करवुं होय ते जगतनुं जोवा रोकाय नहीं.
बहारमां गामेगाम घणा जिनमंदिर थाय ने घणा जीवो धर्म पामे तो मारुं कल्याण थई जाय–एम विचारीने
जो बहारमां ज रोकाय तो आत्मा सामे क्यारे जुए? अरे भाई! तुं तारा आत्मामां एवुं मंदिर बनाव के
जेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपी भगवान आवीने बिराजे! भक्ति–प्रभावना वगेरेनो शुभराग आवे ते
जुदी वात छे पण पात्र जीव ते राग उपर जोर न आपतां आत्माना निर्णयनो उद्यम करे छे. अहो! आवा
तत्त्वनी मने अत्यार सुधी खबर न हती, में भ्रमथी रागादिने ज धर्म मान्यो हतो ने शरीरने ज मारुं स्वरूप
मानीने तेमां हुं तन्मय थयो, पण आ शरीर तो जड–अचेतन छे ने हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं, आ शरीरनो
संयोग तो अल्पकाळ पूरतो ज छे, आ मनुष्यभव कांई कायम रहेवानो नथी. अहीं मने हितनां सर्व
निमित्तो मळ्‌यां छे–माटे मारे मोक्षमार्ग वगेरेनो बराबर निर्णय करवो–आम विचारीने तत्त्वनिर्णयनो उद्यम
करे छे.
जुओ, आ सम्यग्दर्शन पामवानी तैयारीवाळा जीवनी पात्रता! हजी सम्यग्दर्शन पाम्या पहेलां आवो
निर्णय करे छे के हुं आत्मा अनादिअनंत छुं ने आ शरीरनी स्थिति तो अल्पकाळनी ज छे; माटे मारे
तत्त्वनिर्णय करीने मारुं आत्महितनुं प्रयोजन साधी लेवुं; अरे! थोडा काळनुं जीवन, तेमां आत्मानुं ज करवा
जेवुं छे–आम विचारी संसारनां काममांथी रस घटाडीने चैतन्यनो निर्णय करवानो उद्यम करे छे. तेमां ज पोतानुं
हित भास्युं छे तेथी ते कार्य करवामां प्रति अने हर्षपूर्वक उद्यम करे छे. आ रीते पोतानुं कार्य करवामां तेने घणो
उल्लास छे, तेथी जे उपदेश सांभळे तेनो विचार करीने निर्धार करवानो निरंतर उद्यम करे छे. दुनियाने सुधारी
दउं ने देशनो उद्धार करी दउं–एवा विचारमां रोकातो नथी पण हुं तत्त्व समजीने मारा आत्मानो उद्धार करुं–एम
विचारीने तत्त्वनिर्णयनो उद्यम करे छे,–‘काम एक आत्मार्थनुं बीजो नहि मन रोग’
(७) तत्त्वनिर्णय करवा माटे प्रथम तो तत्त्वोनां नाम अने लक्षण जाणे अने पछी पोते परीक्षा द्वारा
विवेक करीने तत्त्वना भावोने ओळखीने निर्णय करे. अज्ञानीना विरुद्ध उपदेशने तो माने ज नहि, परंतु ज्ञानी
पासेथी जे यथार्थ उपदेश मळ्‌यो तेनो पण पोते जाते उद्यम करीने निर्णय करे छे. एम ने एम मानी लेतो नथी
पण पोते पोतानो विचार भेगो भेळवीने मेळवणी करे छे. ज्ञानी पासेथी सांभळी लीधुं पण पछी ‘आ कई रीते
छे, एम पोते तेना भावने ओळखीने जाते निर्णय न करे तो साची प्रतीति थती नथी. माटे कह्युं के ज्ञानी
पासेथी तत्त्वनो जे उपदेश सांभळ्‌यो तेने धारण करी राखे ने पछी एकांतमां विचार करीने जाते तेनो निर्णय
करे, उपदेश सांभळवामां ज जे ध्यान न राखे ने ते वखते बीजा संसारना विचारमां चडी जाय तेने तो तत्त्वना
निर्णयनी दरकार ज नथी. शुं कह्युं ते धारे पण नहि तो विचार करीने अंतरमां निर्णय कई रीते करशे? जेम गाय
खावा टाणे खाई ल्ये छे ने पछी निरांते बेठी बेठी तेने वागोळीने पचावे छे, तेम जिज्ञासु जीव जेवो उपदेश
सांभळे तेवो बराबर याद करी ल्ये अने पछी एकांतमां विवेकपूर्वक विचार करीने तेनो निर्णय करे, ने अंतरमां
तेने परिणमाववानो प्रयत्न करे. यथार्थ उपदेश सांभळवो; याद राखवो, विचार करवो अने तेनो निर्णय करवो–
एम चार वात मूकी. तत्त्वनो निर्णय करवानी शक्ति पोतामां होवी जोईए; आ जीवने एटलो ज्ञाननो उघाड तो
थयो छे पण ते ज्ञानने तत्त्वनो निर्णय करवामां लगाववुं जोईए. सांभळ्‌या पछी पोते एकलो पोताना
उपयोगमां विचार करे के श्री–गुरुए आम कह्युं ते कई रीते छे!–ए प्रमाणे उपदेश अनुसार पोते जाते निर्णय
करवानो प्रयत्न करे छे. मात्र सांभळ्‌या ज करे अने वांच्या ज करे पण जाते कांई पण विचार करीने
तत्त्वनिर्णयमां पोतानी शक्ति न लगावे तो तेने यथार्थ प्रतीतिनो लाभ थाय नहि. ‘हुं ज्ञानानंद आत्मा छुं,
मारा आश्रये ज मारुं हित छे, मारा सिवाय परना अवलंबने रागादिकभावो थाय छे तेमां मारुं हित नथी’–ए
प्रमाणे तत्त्वोना भावनुं भासन थवुं जोईए, तो ज यथार्थ तत्त्वश्रद्धान थाय छे. आवुं तत्त्वार्थश्रद्धान ते
सम्यग्दर्शननुं लक्षण छे.
*
जुओ, आ सम्यग्दर्शन माटेनो उद्यम! जेने अंतरमां सम्यग्दर्शननी गरज थई होय...सम्यक्त्व प्रगट
करवानी चाहना जागी होय तेवा जीवनी आ वात छे. ते