Atmadharma magazine - Ank 116
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७९ः १६९ः
तीर्थंकरो भविष्यमां थशे; भगवाने कहेलुं वस्तुस्वरूप समजीने जे पोतामां आनंद प्रगट करे तेने भगवान
आनंदनुं निमित्त छे अने निमित्त तरीके भगवान आनंदना दातार छे. पण जे पोते न समजे तेने कांई
भगवान समजावी देता नथी अने तेने माटे भगवान आनंदनुं निमित्त पण नथी. भगवाननो परम आनंद
भगवान पासे रह्यो, आ जीव पोते शुद्धनयनुं अवलंबन लईने स्वभावनो आश्रय करे तो तेने कल्याण अने
आनंदनी प्राप्ति थाय छे. शुद्धनयना आश्रय वगर कदी कल्याण के आनंदनी प्राप्ति थती नथी. त्रणेकाळना
जीवोने माटे साचो आनंद प्राप्त करवानी आ एक ज रीत छे. अरिहंत भगवंतोए आ ज उपायथी पोताना
आत्मामां पूर्ण अतीन्द्रिय आनंद प्रगट कर्यो अने बीजा जीवोने आ ज उपाय उपदेश्यो.
* हे जीव! तुं तारुं संभाळ! *
प्रश्नः– आप जे वात समजावो छो ते वात तो बराबर साची ज छे, पण तेनाथी समाजने शुं लाभ थाय?
उत्तरः– जुओ भाई! पहेली वात तो ए छे के पोताने पोतानुं जोवानुं छे. समाजनुं गमे ते थाय–तेनी
चिंता छोडीने पोते पोतानुं संभाळवुं. मधदरिये डबकां खातो होय त्यारे समाजनी के कुंटुंबनी चिंता करवा नथी
रोकातो पण हुं दरियामां डूबतो केम बचुं?–ते माटे ज उपाय करे छे, तेम संसारसमुद्रमां रखडतां मांड मांड
मनुष्यभव मल्यो छे त्यारे मारा आत्मानुं हित केम थाय, मारो आत्मा संसार–भ्रमणथी केम छूटे–ए ज जोवानुं
छे, पारकी चिंतामां रोकाय तो आत्महित चूकाई जाय छे. आ वात तो पोते पोतानुं हित करवानी छे. दरेक जीव
स्वतंत्र छे, तेथी समाजना बीजा जीवोनुं हित थाय तो ज पोतानुं हित थई शके एवुं कांई पराधीनपणुं नथी.
माटे हे जीव! तुं तारा हितनो उपाय कर.
* बधा जीवोने माटे कल्याणनो पंथ एक ज छे *
बीजी वात ए छे के जे उपायथी एक जीवने हित थाय ते ज बधा जीवोने माटे हितनो उपाय छे. समाज
ते कांई जुदी वस्तु नथी पण घणा जीवोनो समूह ते समाज छे; तेमांथी जे जे जीवो आ सत्य वात समजशे ते ते
जीवोनुं कल्याण थशे. कल्याणनो पंथ बधा जीवोने माटे त्रणकाळे एक ज प्रकारनो छे. त्रणेकाळना सर्वे जीवोने
सत्यथी ज लाभ थाय, असत्यथी कदी कोईने लाभ थाय ज नहि.
अहीं ‘सत्य’ एटले शुं? के आत्मानो भूतार्थस्वभाव ते ज सत्य छे, तेना ज आश्रये जीवनुं कल्याण
थाय छे. आत्माना शुद्ध चिदानंदस्वभावना आश्रय वगर त्रणकाळ त्रणलोकमां कोईने शांति थती नथी. अज्ञानी
भले शुभराग करे पण ते धर्म नथी, तेम ज ते शुभरागना फळमां साची शांति मलती नथी.
* सत्यतत्त्वनी विरलता *
अहो! चिदानंदस्वभावना आश्रयनी आ वात समजवी ते तो अपूर्व छे अने सांभळवी पण दुर्लभ छे.
बाह्य क्रियाकांडथी ने शुभरागथी धर्म मनावनारा तो जगतमां घणा छे पण शुद्धनयना आश्रयनो उपदेश
जगतमां बहु विरल छे, तो ते समजनारा तो विरल ज होय–एमां शुं आश्चर्य छे! योगसारमां कहे छे के–
विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई,
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई. ६६.
वळी कार्तिकेयानुप्रेक्षामां पण तत्त्वनी विरलता बतावतां कहे छे के –
विरलाः निश्रृण्वन्ति तत्त्व विरलाः जानन्ति तत्त्वतः तत्त्वं।
विरलाः भावयन्ति तत्त्वं विरलानां धारणा भवति।।२७९।।
जगतमां तत्त्वने कोई विरला पुरुष सांभळे छे, सांभळीने पण तत्त्वने यथार्थरूपे विरला ज जाणे छे,
जाणीने पण तत्त्वनी भावना अर्थात् वारंवार अभ्यास विरला ज करे छे, अने अभ्यास करीने पण तत्त्वनी
धारणा तो विरलाने ज थाय छे.
एक तो जगतमां यथार्थ आत्मस्वरूपनी वात संभळावनार ज्ञानी ज मलवा बहु मोंघा छे. अने ज्ञानी
पासेथी ते वात सांभळवा मळे त्यारे ‘आ तो निश्चयनी कथनी छे’ एम कहीने मूढ अज्ञानी जीवो तेनी अरुचि
करे छे. ‘अहो! आ तो हुं अनंतकाळथी जे नथी समज्यो एवी मारा स्वभावनी अपूर्व वात छे’– एम
अंतरथी आदर लावीने सांभळनारा जीवो विरला होय छे. मूढ जीवोने व्यवहारनी एटले के रागनी