Atmadharma magazine - Ank 116
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः १६८ः आत्मधर्मः ११६
चैतन्यशक्तिनी प्रतीत करतां तेनो विकास थईने शक्तिमांथी केवळज्ञान प्रगटी जाय छे.
अहो! अंदर शक्तिरूपे चैतन्यभगवान बिराजे छे पण जीवोने तेनो महिमा ख्यालमां आवतो नथी.
‘स्वभाव’ शुं छे ते लक्षमां आवतुं नथी एटले कयांक बीजाना आश्रये धर्म मानीने अटकी जाय छे. आखो
आत्मा......परिपूर्ण चैतन्यभगवान.....अंतर्मुखद्रष्टिनो विषय छे, ईंद्रियो के रागना अवलंबनथी ते जणाय तेवो
नथी. जेम पाणी वर्तमानमां ऊनुं होवा छतां तेनो मूळ स्वभाव ठंडो छे–ते निर्णय कोणे कर्यो? ऊना वखते ठंडो
स्वभाव आंखथी तो देखातो नथी, हाथथी स्पर्शातो नथी पण ज्ञानथी ज तेनो निर्णय थाय छे; तेम आत्मानी
वर्तमान पर्यायमां विकार होवा छतां चैतन्यस्वभाव शांत–शीतळ छे तेनो निर्णय पण अंतर्मुखी– ज्ञानथी ज
थाय छे, ईंद्रियोमां के रागमां तेवी ताकात नथी पण ज्ञानमां ज तेवी ताकात छे. अतीन्द्रिय–रागरहित ज्ञान ज
स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी आत्माने जाणे छे. ईंद्रियो वडे अनुमानथी जणाय एवो आत्मा नथी, मनना अवलंबने
अंदर शुभपरिणाम थाय तेनाथी पण आत्मा जणाय तेवो नथी; जेटलो व्यवहार छे तेनामां एवी ताकात नथी
के तेना अवलंबने परमार्थस्वभाव प्रतीतमां आवे! एटले व्यवहारना आश्रये कदी धर्म थतो ज नथी, पहेलेथी
परमार्थस्वभावनो आश्रय ते ज धर्मनो उपाय छे.
* भगवती अहिंसा *
जे क्षणे अंतर्मुख थईने परमार्थस्वभावने द्रष्टिमां लीधो ते क्षणे ज अपूर्व सम्यग्दर्शन धर्मनी शरूआत
थाय छे. अंतर्मुख थईने आवा चिदानंदस्वभावनुं भान करवुं अने तेमां ठरवुं ते ज ‘भगवती अहिंसा’ छे, ते
ज अहिंसा आत्मानुं हित करनारी छे, ते अहिंसाने ज भगवाने धर्म कह्यो छे. आ सिवाय परजीवनी अहिंसानो
शुभभाव ते तो राग छे, राग कांई धर्म नथी. बहारमां भले कोई जीवनी हिंसा न थती होय पण अंदरमां
जेटली रागनी उत्पत्ति थाय तेटली हिंसा छे, अने अंर्तस्वरूपमां एकाग्रता थतां रागनी उत्पत्ति ज न थाय ते
वीतरागी अहिंसा छे ने ते ज धर्म छे.
* खरो सत्य धर्म *
वळी परमार्थरूप भगवान आत्मा ज सत्य परमेश्वर छे. व्यवहार तो अभूतार्थ होवाथी असत् छे ने
आत्मानो भूतार्थ स्वभाव ते सत् छे, ते सत्ना आश्रये ज परमात्मदशा प्रगटे छे; माटे आत्माना आवा
भूतार्थस्वभावने जाणवो ते ज खरो सत्यधर्म छे. शुभभावथी व्यवहारसत्य अनंतवार पाळ्‌युं पण परमार्थ सत्
एवा भूतार्थ–आत्माना भान वगर धर्म थयो नहि. आ रीते अहिंसा–सत्य वगेरे बधा धर्मो आत्माना
परमार्थस्वभावना आश्रयमां आवी जाय छे. अज्ञानी लोको अहिंसा–सत्य वगेरे बधुं बहारमां मानी रह्या छे
पण ते यथार्थ नथी.
* शुद्धनयना आश्रये ज आनंदनी प्राप्ति *
सच्चिदानंद भगवान आत्मानुं अवलंबन लईने तेनी प्रतीत करवी अने तेमां एकाग्र थवुं ते धर्म छे.
चैतन्यने चूकीने व्यवहारना अवलंबनथी जे लाभ माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. व्यवहारनुं फळ तो संसार छे.
शुद्धनयनुं फळ मोक्ष छे, पण ते शुद्धनयनो पक्ष तो जीवोने कदी आव्यो नथी. ज्ञानीने साधकदशामां व्यवहार होय
छे खरो, पण ते व्यवहारना आश्रयथी ज्ञानी कदी लाभ मानता नथी. जेने आत्मानो आनंद जोईतो होय–शांति
जोईती होय तेणे आ रीत समजवी पडशे. जेम शेरडी मीठा रसनी कातळी छे तेम आत्मा आनंद रसनी कातळी
छे, तेमां भेदज्ञानरूपी छरो मारतां आनंदरसनो अनुभव थाय छे. स्वभावमां आनंद भर्यो छे तेमांथी ज
आनंदनी प्राप्ति थाय छे, बहारमांथी आनंद आवतो नथी. जो आत्मामां ज आनंदस्वभाव न होय तो कदी
आनंद प्राप्त थाय नहीं.
* भगवान कोना उपर प्रसन्न थया? * * आनंदनी प्राप्ति केम थाय? *
जुओ, पोतामां केवळज्ञान अने पूर्ण आनंद प्रगट करीने तीर्थंकर भगवंतोए दिव्यध्वनि वडे जगतना
जीवोने तेनो उपाय बताव्यो. जे जीव ते उपाय समजीने पोताना अंतरमांथी वीतरागी आनंद प्रगट करे तेने
भगवान आनंदनुं निमित्त थाय; जेणे पोताना आत्माना आश्रये वीतरागी प्रसन्नता प्रगट करी ते जीव
भगवान उपर आरोप करीने विनयथी एम कहे छे के ‘श्री तीर्थंकर भगवान मारा उपर प्रसन्न थया.’ पण
भगवान तो वीतराग छे तेओ कांई कोई उपर प्रसन्न थईने कांई आपी देता नथी. अनंता तीर्थंकरो पूर्वे थया,
सीमंधरनाथभगवान वगेरे तीर्थंकरो अत्यारे महाविदेहक्षेत्रमां बिराजे छे ने अनंता