अने बाह्यक्रियानी वात सांभळतां होंश आवे छे ने चैतन्यतत्त्वनी अपूर्व वात सांभळतां कंटाळो आवे छे. पण अरे
भाई! आ वात समज्या वगर तारुं कल्याण थाय तेम नथी. भगवान! एकवार अंतरना चैतन्यस्वभाव तरफ
तारी द्रष्टि फेरव. बहारनो महिमा भूली जा ने अंतरनो महिमा लक्षमां ले....तो तारुं कल्याण थाय.
तो मोटो मूढ छे, अने भूतार्थ चैतन्यस्वभावना महिमाने भूलीने जे जीव रागनो स्वामी थाय ते पण मूढ छे.
जडनो स्वामी तो जड होय. जडथी भिन्न पोताना चैतन्य–स्वरूपनुं जेने भान छे ते कदी जडनुं स्वामीपणुं
मानतो नथी एटले के शरीर वगेरेनी क्रिया मारे लीधे थाय छे–एम ते मानतो नथी. जड शरीरादिनी क्रिया
माराथी थाय छे–एम जे माने छे तेणे जडथी भिन्न आत्मानुं भान ज नथी. अनादिकाळथी जीवे शरीरादिनी
क्रियानो अने रागादि व्यवहारनो पक्ष कर्यो छे एटले के तेमना आश्रये धर्म मानीने त्यां ज पर्यायने एकाग्र करी
छे, परंतु देहथी ने रागथी पार एवा पोताना भूतार्थ चैतन्यस्वभावनो पक्ष जीवे कदी कर्यो नथी. तेथी जीव
संसारमां रखडी रह्यो छे.
तेना आश्रये तारुं कल्याण छे. बहारनी क्रियाथी के शुभरागरूप व्यवहारना आश्रयथी कल्याण थशे–एवा तारा
मिथ्या कोलाहलने छोड ने अमे कहीए छीए ते रीते समजीने तारा शुद्धस्वभावनो अनुभव कर.
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः।। ३४।।
पोताना हृदय–सरोवरमां, जेनुं तेज–प्रताप–प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय
छे.–अर्थात् जरूर प्राप्ति थशे.
स्वरूपप्राप्ति माटे छ महिना अभ्यास करवानुं कह्युं तेथी एम न समजवुं के एटलो ज वखत लागे. तेनी प्राप्ति
तो अंतमुहूर्तमां थई जाय छे. पण कोई शिष्यने ते कठण लागतुं होय तो तेनो निषेध कर्यो छे अने कह्युं छे के हे
भाई! जो समजवामां बहु काळ लागशे तो छ महिनाथी अधिक नहि लागे, माटे तुं अंतरमां आनो अभ्यास
कर. अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल छोडीने आमां उद्यम करवाथी जलदी स्वरूपनी प्राप्ति थशे.
नकामो कोलाहल छे. ते कोलाहल छोडीने अंतरमां चैतन्यना परमार्थ स्वरूपनी सन्मुखतानो अभ्यास करे तो
अल्पकाळमां तेनो अनुभव जरूर थाय.
जशे....(ख..ळ...भ...ळा...ट...)