Atmadharma magazine - Ank 116
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 21

background image
ः १७०ः आत्मधर्मः ११६
अने बाह्यक्रियानी वात सांभळतां होंश आवे छे ने चैतन्यतत्त्वनी अपूर्व वात सांभळतां कंटाळो आवे छे. पण अरे
भाई! आ वात समज्या वगर तारुं कल्याण थाय तेम नथी. भगवान! एकवार अंतरना चैतन्यस्वभाव तरफ
तारी द्रष्टि फेरव. बहारनो महिमा भूली जा ने अंतरनो महिमा लक्षमां ले....तो तारुं कल्याण थाय.
* चैतन्य–महिमाने चूकीने मूढ जीव जडनो ने रागनो स्वामी थाय छे *
अहो! एक समयमां केवळज्ञान प्रगटे एवी शक्ति आत्मामां छे, परंतु परमां एक परमाणुने पण फेरवी
शके एवी शक्ति आत्मामां नथी केम के आत्मा जडनो स्वामी नथी. पोताने शरीर वगेरे जडनो स्वामी माने ते
तो मोटो मूढ छे, अने भूतार्थ चैतन्यस्वभावना महिमाने भूलीने जे जीव रागनो स्वामी थाय ते पण मूढ छे.
जडनो स्वामी तो जड होय. जडथी भिन्न पोताना चैतन्य–स्वरूपनुं जेने भान छे ते कदी जडनुं स्वामीपणुं
मानतो नथी एटले के शरीर वगेरेनी क्रिया मारे लीधे थाय छे–एम ते मानतो नथी. जड शरीरादिनी क्रिया
माराथी थाय छे–एम जे माने छे तेणे जडथी भिन्न आत्मानुं भान ज नथी. अनादिकाळथी जीवे शरीरादिनी
क्रियानो अने रागादि व्यवहारनो पक्ष कर्यो छे एटले के तेमना आश्रये धर्म मानीने त्यां ज पर्यायने एकाग्र करी
छे, परंतु देहथी ने रागथी पार एवा पोताना भूतार्थ चैतन्यस्वभावनो पक्ष जीवे कदी कर्यो नथी. तेथी जीव
संसारमां रखडी रह्यो छे.
* कोलाहल छोडीने सत्य समजवानो उपदेश *
अहीं आचार्यभगवान समजावे छे के हे जीव! व्यवहारनयनो विषय तो अभूतार्थ छे, तेना आश्रये तारुं
कल्याण नथी माटे तेनो आश्रय छोड, अने शुद्धनयना विषयरूप परमार्थआत्मानो आश्रय कर. ते भूतार्थ छे,
तेना आश्रये तारुं कल्याण छे. बहारनी क्रियाथी के शुभरागरूप व्यवहारना आश्रयथी कल्याण थशे–एवा तारा
मिथ्या कोलाहलने छोड ने अमे कहीए छीए ते रीते समजीने तारा शुद्धस्वभावनो अनुभव कर.
जे जीव आ वात समजतो नथी अने विरोध करे छे तेने तेना आत्महितनी वात मीठाशथी आचार्यदेव
समजावे छे केः
विरम! किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य पण्मासमेकम्।
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः।। ३४।।
–हे भव्य! तने नकामो कोलाहल करवाथी शुं लाभ छे? ए कोलाहलथी तुं विरक्त था अने एक
चैतन्यमात्र वस्तुने पोते निश्चळ लीन थईने देख; एवो छ महिना अभ्यास कर अने जो....के एम करवाथी
पोताना हृदय–सरोवरमां, जेनुं तेज–प्रताप–प्रकाश पुद्गलथी भिन्न छे एवा आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय
छे.–अर्थात् जरूर प्राप्ति थशे.
* अन्य कोलाहल छोडीने अभ्यास करे तो..... *
जो पोताना स्वरूपनो अभ्यास करे तो तेनी प्राप्ति एटले के अनुभव जरूर थाय; जो परवस्तु होय तो
तेनी तो प्राप्ति न थाय. पोतानुं स्वरूप तो मोजूद छे पण भूली रह्यो छे. जो चेतीने देखे तो पासे ज छे. अहीं
स्वरूपप्राप्ति माटे छ महिना अभ्यास करवानुं कह्युं तेथी एम न समजवुं के एटलो ज वखत लागे. तेनी प्राप्ति
तो अंतमुहूर्तमां थई जाय छे. पण कोई शिष्यने ते कठण लागतुं होय तो तेनो निषेध कर्यो छे अने कह्युं छे के हे
भाई! जो समजवामां बहु काळ लागशे तो छ महिनाथी अधिक नहि लागे, माटे तुं अंतरमां आनो अभ्यास
कर. अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल छोडीने आमां उद्यम करवाथी जलदी स्वरूपनी प्राप्ति थशे.
जुओ, अहीं ‘अन्य कोलाहल’ छोडीने अभ्यास करवानुं कह्युं छे, एक परमार्थ चैतन्यस्वरूप सिवाय
बीजा कोईना आश्रयथी लाभ थाय के व्यवहार करतां करतां तेनाथी धर्म थई जाय–एवी मान्यता ते बधो
नकामो कोलाहल छे. ते कोलाहल छोडीने अंतरमां चैतन्यना परमार्थ स्वरूपनी सन्मुखतानो अभ्यास करे तो
अल्पकाळमां तेनो अनुभव जरूर थाय.
* केवळज्ञान *
अहो! चैतन्यना अद्भुत–अचिंत्य निधान अंतरमां भर्या छे. हे चिदानंदनाथ! केवळज्ञान थवानुं
सामर्थ्य तारी अंर्तशक्तिमां भर्युं छे, तेमां अंतर्मुख थईने प्रतीत अने एकाग्रता करतां केवळज्ञान प्रगटी
जशे....(ख..ळ...भ...ळा...ट...)