आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
चूकीने परथी धर्म माने छे तेने पर्यायमां मिथ्याश्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप अधर्म छे. ते अधर्म टाळीने धर्म करवा
मांगे छे. ते धर्म थवानी ताकात वस्तुमां छे. आत्माना स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म
थाय छे. जो वस्तुमां धर्म थवानी ताकात न होय तो क्यांथी आवे? जेने सम्यग्दर्शन जोईतुं होय–शांति जोईती
होय–आनंद जोईतो होय–धर्म जोईतो होय तेने क्यां जोवुं? सुख अने शांतिनुं धाम क्यां छे? शरीर वगेरे
परमां तो शांति के सुख नथी, रागमां पण सुख के शांति नथी; जे सम्यग्दर्शन अने शांति प्रगट करवा मागे छे
तेने वर्तमानपर्यायमां सम्यग्दर्शन–शांति नथी, पर्यायनो आश्रय करवाथी पण सुख के शांति थता नथी,
आत्माना धु्रव चैतन्यस्वभावमां सुख–शांतिनुं सामर्थ्य छे, ते भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी ज पर्यायमां सुख–
शांति–सम्यग्दर्शन–धर्म थाय छे. भूतार्थस्वभावना आश्रये ज कल्याण छे तेथी भूतार्थनो ज आश्रय करवा जेवो
छे; व्यवहार तो अभूतार्थ छे माटे ते आश्रय करवा जेवो नथी, तेना आश्रये कल्याण थतुं नथी. अभेद वस्तुनुं
प्रतिपादन करतां वच्चे भेद आवे छे खरो, पण ते भेदरूप व्यवहार आश्रय करवा जेवो नथी. पोतामां
अभेदस्वभावनुं अवलंबन लेवा जतां वच्चे भेदनो विकल्प आवे छे पण ते आश्रय करवा जेवो नथी; भेदना के
विकल्पना अवलंबनमां रोकाय तो सम्यग्दर्शन थतुं नथी, अभेदरूप भूतार्थस्वभावनी सन्मुख थवाथी ज
सम्यग्दर्शन थाय छे.
छे, माटे भूतार्थ स्वभाव ज आश्रय करवा जेवो छे–एम तुं समज. व्यवहारना अवलंबने आत्मानुं परमार्थ
स्वरूप जणातुं नथी, शुद्धनयना अवलंबनथी आत्माना परमार्थस्वरूपने जाणवुं ते सम्यग्दर्शन छे.
अने पाणीना स्वच्छ स्वभावने जाणनारा केटलाक विवेकी जनो तो पोताना हाथथी पाणीमां कतकफळ
नांखीने पाणी अने कादवना विवेक द्वारा निर्मळ जळनो अनुभव करे छे.–आ रीते पाणीनुं द्रष्टांत छे. तेम
आत्मानी पर्यायमां प्रबळ कर्मना संयोगथी मलिनता थई छे; त्यां जेने आत्माना शुद्धस्वभाव अने विकार
वच्चेनुं भेदज्ञान नथी एवा अज्ञानी जीवो तो आत्माने मलिनपणे ज अनुभवे छे. तेने अहीं आचार्यदेव
समजावे छे के हे जीव! आ मलिनता देखाय छे ते तो क्षणिक अभूतार्थ छे, ते तारो कायमी स्वभाव नथी,
तारो असली–भूतार्थ स्वभाव तो शुद्ध चैतन्यरूप छे, तेने तुं शुद्धनय वडे देख; शुद्धनय वडे तारा आत्माने
कर्मथी अने विकारथी जुदो जाण. संयोगी द्रष्टिथी न जोतां शुद्धनयनुं अवलंबन लईने आत्माना भूतार्थ
स्वभावनी पवित्रतानो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे.
महान सिद्धांत बताव्यो छे.
कर्मोए नथी ढांक्यो पण पोतानी ऊंधी द्रष्टिथी ते ढंकाई गयो छे. अज्ञानी जीव अंतरमां पोताना
ज्ञायकस्वभावने तो देखतो नथी ने कर्मने ज देखे छे, तेने ‘पुद्गलकर्मना प्रदेशमां स्थित’ कह्यो छे. कर्मना कारणे
विकार थयो एम जे माने छे अथवा तो आत्माने एकलो विकारी ज अनुभवे छे पण शुद्धपणे अनुभवतो नथी
ते पण पुद्गलकर्ममां ज स्थित छे, आत्मा तरफ तेनी द्रष्टि वळी नथी.