Atmadharma magazine - Ank 116
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७९ः १६पः
पोतानी लायकातथी हीणी परिणमी छे अने तेमां ज्ञानावरण कर्म निमित्त छे–एम बताववा गोम्मटसार
वगेरेमां निमित्तथी कथन कर्युं छे. जो खरेखर जडकर्मने जीवनी पर्यायनुं कर्ता माने तो ते पण ईश्वरने जगत्कर्ता
माननार जेवो ज थयो. जेम ईश्वर जीवोने स्वर्ग–नरकमां लई जनार नथी, तेम कर्मने कारणे जीवने स्वर्ग–नरक
कहेवा ते पण उपचारथी ज छे, खरेखर चारे गति ते जीवनो औदयिकभाव छे, ते जीवनुं स्वतत्त्व छे, जडना
कारणे नथी. अहीं तो ते औदयिकभावोथी पण पार एवा शुद्धज्ञानानंदस्वभावने स्वतत्त्व तरीके बताववो छे.
तेने जाण्या वगर सम्यग्दर्शन थतुं नथी. हजी तो पर्यायने ज परथी थती माने ते जीव परनुं लक्ष छोडीने त्रिकाळी
निरपेक्ष तत्त्वने द्रष्टिमां क्यांथी ल्ये? अज्ञानी जीव शुद्धज्ञानानंदजळने तो अनुभवतो नथी ने आत्माने
अशुद्धरूपे ज अनुभवे छे, एटले कर्म उपर ज तेनी द्रष्टि छे तेथी तेने ‘पुदगलकर्मना प्रदेशमां स्थित’ कह्यो छे.
क्षणिक विकारी भावने ज आत्मा मानीने जे अटकी जाय छे ते जीव व्यवहारमग्न छे, ‘व्यवहारमां
मग्न’ कहो के ‘पुद्गलकर्मना प्रदेशमां स्थित’ कहो–बंने सरखा छे. अहीं आचार्यभगवान समजावे छे के भाई!
तारुं त्रिकाळ विद्यमान स्वरूप शुं छे तेने ओळख; एने ओळखवाथी ज सम्यग्दर्शन थईने तारा भवभ्रमणनो
अंत आवशे. ए सिवाय बहारनुं जाणपणुं ते कांई खरी विद्या नथी–तेनाथी कल्याण नथी, विद्यमान एवा
आत्मतत्त्वने जाणवुं ते ज साची विद्या छे, ते विद्याथी मुक्ति थाय छे. शुद्ध नय कतकफळना स्थाने छे तेथी जेओ
शुद्धनयनो आश्रय करीने आत्माना परमार्थस्वरूपने देखे छे तेओ ज आत्मस्वभावनुं सम्यक् अवलोकन
करनारा सम्यग्द्रष्टि छे, जेओ आत्माना परमार्थस्वरूपने देखता नथी तेओ सम्यग्द्रष्टि नथी.
अहो! सम्यग्दर्शन तो जगतमां अपूर्व–अचिंत्य महिमावंत चीज छे; सम्यग्दर्शन थतां ज आखुं
परिणमन फरी जाय छे. जेने सम्यग्दर्शन थयुं तेना चैतन्यआंगणे मुक्तिना मांडवा नंखाया, तेना आत्मामां
सिद्धभगवानना संदेश आवी गया....एने अनंत भवमां रखडवानी शंका टळी गई अने अल्पकाळमां मुक्ति
थवानो निःसंदेह विश्वास प्रगट थयो.–आवुं अपूर्व–परम–अचिंत्य सम्यग्दर्शन प्रगटवा माटे अंतरना चिदानंद
परमात्मा सिवाय बीजा कोईनुं अवलंबन छे ज नहि. स्थूळ जीवोए सम्यग्दर्शनने ओळख्या वगर बहारथी
सम्यग्दर्शन मानी लीधुं छे, अहीं आचार्यभगवाने शुद्धनयथी भूतार्थस्वभावनुं अवलंबन करावीने
सम्यग्दर्शननो यथार्थ उपाय बताव्यो छे. आ उपायथी जे सम्यग्दर्शन प्रगट करे तेने अल्पकाळमां भवनो
अभाव थई जाय.
*
‘आत्महित’ माटे संतोनी शिखामण
गतमां बीजा जीवो धर्म पामे के न पामे तेमां
पोताने शुं? पोताने तो पोताना आत्मामां जोवानुं छे.
बीजा जीवो मुक्ति पामे तेथी कांई आ जीवनुं हित थइ
जतुं नथी अने बीजा जीवो संसारमां रखडे तेथी कांइ
आ जीवनुं हित अटकतुं नथी. पोते ज्यारे पोताना
आत्माने समजे त्यारे पोतानुं हित थाय छे; आ रीते
पोताना आत्माने माटेनी आ वात छे. सततत्त्व तो
त्रणे काळे दुर्लभ छे ने ते समजनारा जीवो पण विरला
ज होय छे, माटे पोते समजीने पोताना आत्मानुं हित
साधी लेवुं.
–प्रवचनमांथी.
‘निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे,
त्यम ज्ञानी परजनसंग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे.’