Atmadharma magazine - Ank 116
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः १६६ः आत्मधर्मः ११६
भव्य जीवोना कल्याण माटे
संतोए केवो उपदेश कर्यो?
(मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सव दरमियान केवळज्ञान कल्याणकना
दिवसे पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचनः वीर सं. २४७९ चैत्र सुद ९)
आ प्रवचनमां शुं वांचशो?
*भूतार्थ स्वभावना अवलंबननो उपदेश *सम्यग्दर्शन
वगेरेनुं खरुं साधन * जैनधर्म अने तेनी अहिंसा * अंतरनी
चैतन्यशक्ति अने तेनो महिमा * भगवाननी अहिंसा *खरो
सत्यधर्म * शुद्धनयना आश्रये ज आनंदनी प्राप्ति *
भगवान कोना उपर प्रसन्न थया? * आनंदनी प्राप्ति केम
थाय? * हे जीव! तुं तारुं संभाळ! * बधा जीवोने माटे
कल्याणनो पंथ एक ज छे * सत्य तत्त्वनी विरलता *
चैतन्य–महिमाने चूकीने मूढ जीव जडनो ने रागनो स्वामी थाय
छे *कोलाहल छोडीने सत्य समजवानो उपदेश * अन्य
कोलाहल छोडीने अभ्यास करे तो अल्पकाळमां स्वरूपनी प्राप्ति
थाय * केवळज्ञान *नेमिनाथ प्रभुने केवळज्ञान अने
दिव्यध्वनि तरीकेनो उपदेश.
*
*भूतार्थस्वभावना अवलंबननो उपदेश*
धर्म केम थाय ते वात आ समयसारनी अगियारमी गाथामां आचार्यदेव बतावे छे–
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे.
आत्माना परमार्थस्वभावने ओळखीने तेनो आश्रय करवाथी ज जीवने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
धर्म थाय छे, ए सिवाय बहारनी कोई क्रियाना आश्रये धर्म थतो नथी. अनादिकाळथी परना अने रागना
आश्रये धर्म मानीने अज्ञानी जीवो संसारमां रखडी रह्या छे, पण आत्माना भूतार्थस्वभावनी द्रष्टि
अनंतकाळमां कदी एक सेकंड पण प्रगट करी नथी, अने एवी द्रष्टि कर्या वगर कदी धर्म थतो नथी. अज्ञानी जीवो
व्यवहारना आश्रयथी धर्म थवानुं मानी रह्या छे, परंतु व्यवहारना आश्रयनुं फळ तो संसार छे. परिपूर्ण
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा ते भूतार्थ छे, ते भूतार्थस्वभावनो पक्ष एटले के आश्रय जीवे पूर्वे कदी कर्यो नथी. मोक्ष
तो आत्माना भूतार्थस्वभावना अवलंबने ज थाय छे, तेथी भव्य जीवोना कल्याणने माटे आचार्यदेवे भूतार्थ
स्वभावना अवलंबननो ज उपदेश आप्यो छे अने व्यवहारनुं अवलंबन छोडवानो उपदेश कर्यो छे.
*सम्यग्दर्शन वगेरेनुं खरुं साधन*
आ वात समज्या वगर जीवे अनंतकाळमां बधुं कर्युं पण तेथी कांई कल्याण थयुं नहि. श्रीमद् राजचंद्र
कहे छे के–