Atmadharma magazine - Ank 117
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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अषाढ: २४७९ : १९१ :
[३]
• श्री जैनदर्शन शिक्षणवर्गनी परीक्षा •
[त्रीजा वर्ग (उत्तम श्रेणी) मां पूछायेला प्रश्नो अने तेना जवाबो]
: विषय:
मोक्षमार्ग–प्रकाशक अध्याय १, पृष्ठ: १ थी ११.
जैनसिद्धांत प्रवेशिकाना प्रश्नो: १ थी १३२ तथा २८९ थी ३०प.
उपादान–निमित्तना दोहा (४७+७).
• प्रश्न: १ •
–भावलिंगी मुनि कोने कहे छे, तेमनां अंतरंग अने बाह्य चिह्नो शुं छे अने तेमनी बाह्य प्रवृत्ति केवी
होय ते विषे एक निबंध लखो.
(आ प्रश्नना उत्तररूप निबंध आवता अंके आपवामां आवशे.)
• प्रश्न: २ (अ) •
वीतराग–विज्ञानरूप प्रयोजननी सिद्धि श्री अरिहंतादिक वडे केवी रीते थाय छे ते कारण आपीने
समजावो.
• उत्तर: २ (अ) •
वीतरागी–विज्ञान वडे ज जीवने सुखनी प्राप्ति अने दुःखनो नाश थाय छे तेथी ते वीतरागीविज्ञाननी
प्राप्ति करवी ते जीवनुं प्रयोजन छे; ते वीतरागी–विज्ञाननी प्राप्ति अरिहंतादिक वडे नीचेना कारणोथी थाय छे:
आत्माना परिणाम त्रण प्रकारना छे––अशुभ, शुभ अने शुद्ध. तीव्रकषायरूप परिणाम ते अशुभ छे,
मंदकषायरूप शुभ छे अने कषायरहित ते शुद्धपरिणाम छे. तेमांथी–
(१) पोताना वीतरागी–विज्ञानरूप स्वभावना घातक एवा ज्ञानावरणादि घातिकर्मोनो अशुभपरिणाम
वडे तो तीव्रबंध थाय छे;
(२) शुभपरिणाम वडे मंद बंध थाय छे तेम ज ते शुभपरिणाम प्रबळ होय तो पूर्वना तीव्रबंधने पण
मंद करे छे; अने
(३) शुद्धपरिणाम वडे बंध थतो ज नथी, केवळ तेनी निर्जरा ज थाय छे.
––हवे अरिहंतादिक प्रत्ये स्तवनादिरूप जे भाव थाय छे ते कषायनी मंदतापूर्वक होय छे माटे ते विशुद्ध
परिणाम छे तथा समस्त कषायभाव मटाडवानुं साधन छे तेथी ते शुद्धपरिणामनुं कारण पण छे. एवा परिणाम
वडे पोताना घातक एवा घातिकर्मोनुं हीनपणुं थईने स्वाभाविक रीते ज वीतराग–विशेषज्ञान प्रगटे छे. पोताना
परिणामथी जेटला अंशे घातिकर्मो हीन थाय तेटले अंशे वीतरागी–विज्ञान प्रगटे छे. आ प्रमाणे श्री अरिहंतादि
वडे पोतानुं वीतरागी–विज्ञानरूप प्रयोजन सिद्ध थाय छे.
वळी श्री अरिहंतादिकना आकारनुं–उपशांत मुद्रानुं तथा प्रतिमा वगेरेनुं अवलोकन, तेमना स्वरूपनो
विचार, तेमना वचननुं श्रवण, निकटवर्ती होवुं तथा तेमना अनुसार प्रवर्तवुं... ए वगेरे कार्यो तत्काल ज
निमित्तभूत थई रागादिकने हीन करे छे अने जीव–अजीव वगेरेनुं विशेषज्ञान उपजावे छे, माटे ए प्रमाणे पण
श्री अरिहंतादिक वडे वीतरागविज्ञानरूप प्रयोजननी सिद्धि थाय छे.
आ बाबत श्री प्रवचनसारमां पण कह्युं छे के–
जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्यने पर्ययपणे
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०