Atmadharma magazine - Ank 117
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: १९२ : आत्मधर्म: ११७
• प्रश्न: २ (ब) •
मंगळ करनारने जिनशासनना भक्त देवादिक सहायमां निमित्त केम बनता नथी तेनां कारणो आपो.
• उत्तर: २ (ब) •
जीवोने सुख–दुःख थवानुं कारण पोतानां कर्मोनो उदय छे अने तेने अनुसार बाह्यनिमित्त बनी आवे
छे; जेने पुण्यनो उदय होय तेने बहारमां सहायतानां निमित्तो बने छे, अने जेने ते जातना पुण्यनो उदय न
होय तेने तेवा सहायनां निमित्तो बनता नथी.
वळी जे देवादिक छे तेओ क्षायोपशमिक ज्ञानवाळा छे तेथी एकसाथे बधुं जाणी शकता नथी एटले मंगळ
करनारने जाणवानुं पण कोई देवादिकने कोई काळमां बने छे; माटे जो मंगळ करनार तेना जाणवामां ज न आवे
तो ते देवादिक तेने सहायमां निमित्त कई रीते थाय?
तथा ते मंगळ करनार कोईवखते ते देवादिकना जाणवामां आवे तो ते वखते पण जो ते देवने अति
मंदकषाय होय तो तेने सहाय करवाना परिणाम ज थता नथी, अने जो तीव्र कषाय होय तो धर्मानुराग थतो
नथी; वळी मध्यम कषायरूप ए कार्य करवाना परिणाम थाय छतां पोतानी शक्ति न होय तो ते शुं करे?
––आ कारणोथी मंगळ करनारने पण जिनशासनना भक्त देवादिक सहायमां निमित्त बनता नथी.
कोईवार ते देवादिकनी शक्ति होय, धर्मानुरागरूप मंदकषायना तेवा ज परिणाम थाय अने ते वखते अन्य
मंगळ करनार जीवना कर्तव्यने ते जाणे तो कोई देवादिक कोई धर्मात्माने सहाय करे. आ प्रमाणे मंगळ करनारने
देवादिक सहाय करे ज एवो कोई नियम नथी.
मंगळ करवामां जीवने पोताने विशुद्ध परिणाम थाय छे तथा पोताना वीतरागी विज्ञानरूप प्रयोजननुं
पोषण थाय छे तेनो ज पोताने लाभ छे, बहारनो योग बनवो ते तो पुण्यना उदयअनुसार बने छे.
• प्रश्न: ३ •
समर्थकारणनी व्याख्या लखो अने ते व्याख्यामां आवेला नियमो नीचेना बे प्रसंगमां कई रीते लागु पडे
छे ते स्पष्ट समजावो––
(१) एक जीवने वर्तमानमां औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.
(२) महाविदेहक्षेत्रमां बिराजमान एक मुनिने अनंतचतुष्टय प्रगटे छे.
• उत्तर: ३ •
समर्थकारणनी व्याख्या:– –प्रतिबंधनो अभाव तथा सहकारी समस्त सामग्रीओना सद्भावने
समर्थकारण कहेवाय छे; समर्थकारण थतां कार्य नियमथी थाय छे. सहकारी समस्त सामग्रीओमां उपादानकारण
पण आवी जाय छे. ज्यां उपादाननुं कार्य थाय छे त्यां सहकारी कारणोने समर्थकारण कहेवाय छे अने ज्यां
उपादाननुं कार्य नथी थतुं त्यां ते कारणोने असमर्थकारण कहेवाय छे एटले के कारण थवा माटे ते असमर्थ छे
केमके कार्य ज थयुं नथी.
(१) जे जीव वर्तमानमां औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे तेने वर्तमानमां दर्शनमोहनीय कर्मनो
उपशम छे एटले तेना उदयनो अभाव छे, तेम ज असंज्ञीपणानो अभाव, निद्रानो अभाव, कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनी
श्रद्धानो अभाव, अपर्याप्तपणानो अभाव–ईत्यादि प्रतिबंधनो अभाव छे. मिथ्यात्वनो उदय, असंज्ञीपणुं वगेरे
सम्यग्दर्शनना प्रतिबंधक छे, सम्यग्दर्शन प्रगट करनारने ते प्रतिबंधनो अभाव छे. अने पोताना श्रद्धागुणनी ते
जातनी निर्मळ पर्याय थवानी पात्रता (उपादानकारण), तथा साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा, देशनालब्धिनी प्राप्ति,
दर्शनमोहनो उपशम, जागृत अवस्था, संज्ञीपणुं, पर्याप्तपणुं वगेरे (निमित्तकारणो) नो सद्भाव छे. आ रीते ते
जीवने प्रतिबंधनो अभाव अने सहकारी समस्त सामग्रीना सद्भावरूप समर्थकारण छे.
(२) महाविदेहक्षेत्रमां बिराजमान मुनिने अनंतचतुष्टय प्रगटे तेमां तेमने समर्थकारण आ प्रमाणे छे:
प्रथम तो ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मो, गृहस्थदशा, वस्त्रसहितपणुं, आहार–वगेरे अनंतचतुष्टयना
प्रतिबंधक छे, ते प्रतिबंधोनो तेमने अभाव छे; अने सहकारी सामग्रीरूपे पोताना ज्ञानादिगुणोनी ते वखतनी
तेवी पर्याय थवानी पात्रता (उपादानकारण) तथा पुरुषदेह, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र साहित दिगंबर
मुनिदशा, उत्तम संहनन, महाविदेहक्षेत्र ईत्यादि (निमित्तकारणो) छे.