Atmadharma magazine - Ank 117
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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: १९८ : आत्मधर्म: ११७
• आत्मानी.अद्भुत.शोभा •

अनादिकाळथी पोताना आत्मानी त्रिकाळी शोभाने भूलीने अने परथी पोतानी शोभा मानीने जीव
संसारमां रखडी रह्यो छे. तेने आचार्यदेव आत्मानी शोभा बतावे छे: अरे जीव! रूपाळुं शरीर वगेरे जडमां तो
तारी शोभा नथी, अने जीव संसारमां रखड्यो–एवी बंधननी वात करवी तेमां पण तारी शोभा नथी, तारो
आत्मा सदाय पोताना एकत्व शुद्धस्वरूपमां प्रतिष्ठित छे तेमां ज तारी त्रिकाळी शोभा छे, अने तेनी
ओळखाणथी पर्यायमां शोभा प्रगटे छे.
लोको बहारनी प्रतिष्ठा अने शोभाथी पोतानी मोटाई माने छे, पण ते तो मिथ्या छे, पोताना स्वरूपमां
प्रतिष्ठा वडे ज आत्मानी शोभा अने महिमा छे. ––आम समजतां पर्याय पण अंतर्मुख थईने निर्मळपणे शोभी
ऊठे छे. आ सिवाय क्यांय बहारमां––पैसाथी, शरीरथी, वस्त्रथी के दागीनाथी, अरे! पुण्यथी पण आत्मानी
शोभा मानवी ते खरी शोभा नथी पण कलंक छे. स्वरूपमां प्रतिष्ठित एवो आत्मा पोते स्वयं शोभायमान छे,
कोई बीजा वडे तेनी शोभा नथी. आत्मा परमात्मा थाय एना जेवी कई शोभा? अने जेमांथी अनंतकाळ
परमात्मदशा प्रगट्या करे–ए द्रव्यसामर्थ्यनी शोभानी तो शी वात!!
मोटी शोभा त्रिकाळी द्रव्यमां छे तेना ज आधारे पर्यायमां शोभा प्रगटी जाय छे. सिद्धदशा ते पर्यायनी
शोभा छे, ते एक समयपूरती छे ने द्रव्यनी शोभा त्रिकाळ छे. पर्यायनी शोभा क्यारे प्रगटे? ––के त्रिकाळ
शोभता द्रव्यनी सामे द्रष्टि करे त्यारे! जे आम समजे तेनुं वलण अंतरमां द्रव्यस्वभाव तरफ वळी जाय, ते
बहारमां परथी पोतानी शोभा माने नहि एटले तेनी द्रष्टिमां पर प्रत्ये वीतरागभाव थई जाय. ––आ रीते धर्म
थाय छे.
भगवान आत्मा पोताना एकरूप स्वरूपमां प्रतिष्ठाथी त्रिकाळ महिमावंतपणे शोभी रह्यो छे; आवा
शोभता द्रव्यनो आशरो लेतां पर्यायमां वीतरागी शोभा प्रगटी जाय छे. परंतु ते पर्याय उपर द्रष्टि नथी केमके
ते पर्याय पोते अंतरमां वळीने त्रिकाळी द्रव्यनी शोभामां समाई गई छे.
चैतन्यद्रव्यनी शोभानो अपार महिमा छे... अहो आना महिमाथी जेने सम्यग्दर्शन थयुं–सम्यग्ज्ञान थयुं
ते धर्मात्मा एकली पर्यायनी शोभामां बधुं अर्पी न द्ये, पण द्रव्य–गुणनी महान शोभाने साथे ने साथे राखे छे.
अपूर्व सम्यग्दर्शन–ज्ञान थया, पण ते क्यांथी थया? ––त्रिकाळी द्रव्यमां सामर्थ्य हतुं तेमांथी थया छे; माटे ते
त्रिकाळी सामर्थ्यनुं अपार माहात्म्य छे. अज्ञानी जीव एकली पर्यायना महिमामां ज अटकी जाय छे, द्रव्यना
ध्रुवमहिमानी तेने खबर नथी.
श्री आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! तारा त्रिकाळी स्वरूपथी ज तारी शोभा छे–एम अमे बताव्युं, ते
समजीने तुं एकली पर्यायना बहुमानमां न अटकतां त्रिकाळी द्रव्यनुं बहुमान कर. एम करवाथी द्रव्यद्रष्टिमां
सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायो सहेजे प्रगटी जशे अने तारो आत्मा पर्यायथी पण शोभी ऊठशे.
जय हो... चैतन्यनी अद्भुत शोभानो...!
[––प्रवचनमांथी]