अनादिकाळथी पोताना आत्मानी त्रिकाळी शोभाने भूलीने अने परथी पोतानी शोभा मानीने जीव
तारी शोभा नथी, अने जीव संसारमां रखड्यो–एवी बंधननी वात करवी तेमां पण तारी शोभा नथी, तारो
आत्मा सदाय पोताना एकत्व शुद्धस्वरूपमां प्रतिष्ठित छे तेमां ज तारी त्रिकाळी शोभा छे, अने तेनी
ओळखाणथी पर्यायमां शोभा प्रगटे छे.
ऊठे छे. आ सिवाय क्यांय बहारमां––पैसाथी, शरीरथी, वस्त्रथी के दागीनाथी, अरे! पुण्यथी पण आत्मानी
शोभा मानवी ते खरी शोभा नथी पण कलंक छे. स्वरूपमां प्रतिष्ठित एवो आत्मा पोते स्वयं शोभायमान छे,
कोई बीजा वडे तेनी शोभा नथी. आत्मा परमात्मा थाय एना जेवी कई शोभा? अने जेमांथी अनंतकाळ
परमात्मदशा प्रगट्या करे–ए द्रव्यसामर्थ्यनी शोभानी तो शी वात!!
शोभता द्रव्यनी सामे द्रष्टि करे त्यारे! जे आम समजे तेनुं वलण अंतरमां द्रव्यस्वभाव तरफ वळी जाय, ते
बहारमां परथी पोतानी शोभा माने नहि एटले तेनी द्रष्टिमां पर प्रत्ये वीतरागभाव थई जाय. ––आ रीते धर्म
थाय छे.
ते पर्याय पोते अंतरमां वळीने त्रिकाळी द्रव्यनी शोभामां समाई गई छे.
अपूर्व सम्यग्दर्शन–ज्ञान थया, पण ते क्यांथी थया? ––त्रिकाळी द्रव्यमां सामर्थ्य हतुं तेमांथी थया छे; माटे ते
त्रिकाळी सामर्थ्यनुं अपार माहात्म्य छे. अज्ञानी जीव एकली पर्यायना महिमामां ज अटकी जाय छे, द्रव्यना
ध्रुवमहिमानी तेने खबर नथी.
सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायो सहेजे प्रगटी जशे अने तारो आत्मा पर्यायथी पण शोभी ऊठशे.