Atmadharma magazine - Ank 117
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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सु.व.र्ण.पु.री.स.मा.चा.र
जेठ सुद पांचमे ‘श्रुतपंचमी’ नो महोत्सव ऊजवायो हतो. आ दिवसे श्रुतज्ञानना महिमा संबंधी खास
प्रवचन पू. गुरुदेवश्रीए कर्युं हतुं, ते उपरांत षट्खंडागम आदि श्रुतज्ञाननी खास पूजा अने भक्ति करवामां
आवी हती. अंतिम तीर्थंकर भगवान श्री वर्द्धमान जिनेन्द्रना दिव्यध्वनि साथे सीधो संबंध धरावतुं पवित्र
श्रुतज्ञान धरसेनाचार्यदेवने हतुं. तेओश्रीए, आ सौराष्ट्र देशमां नेमिनाथ भगवानना चरणथी पावन थयेल
गीरनारनी तीर्थभूमिमां, पुष्पदंत अने भूतबलि मुनिवरोने ते ज्ञान आप्युं. आचार्य श्री पुष्पईत अने
भूतबलि मुनिवरोए शास्त्ररचना करीने ते ज्ञानने लिपिबद्ध कर्युं. अने जेठ सुद पांचमे अंकलेश्वरमां महान
उत्सवपूर्वक चतुर्विध संघे ते श्रुतनी पूजा करी. –आ रीते महावीर भगवानना दिव्यध्वनिनो पवित्र अंश आजे
पण जळवाई रह्यो छे ते सुपात्र मुमुक्षुओनां महा सुभाग्य छे.
–––ए श्रुतपंचमीना दिवसे पू. गुरुदेव मानस्तंभनी यात्रा करवा उपर पधार्या हता, अने मानस्तंभनी
उपर बिराजमान सीमंधरप्रभुनी खास भक्ति करावी हती. आ ज दिवसे सांजे विशिष्ट उल्लासपूर्वक
मानस्तंभनो महाअभिषेक तथा भक्ति थया हता. मानस्तंभ उपर जवा माटे जे पालख बांधेला हता ते हवे
छूटी गया छे, पालख छूटी जतां ऊंचा ऊंचा आकाशमां खुल्ला मानस्तंभनी अद्भुत शोभा जोतां आंखोने
तृप्ति ज थती नथी. मानस्तंभनो उपरनो देखाव असल भगवाननी गंधकुटी जेवो लागे छे. चारे बाजु
वादळांनी वच्चे मानस्तंभमां ऊंचे बिराजमान सीमंधर भगवानने नीरखतां एवुं अद्भुत द्रश्य लागे छे के
जाणे गगनमां भगवाननी गंधकुटी विहार करतां करतां अहीं आवीने थंभी गई होय!
मानस्तंभनी चारे बाजु चार वावडी होय छे, ते स्वच्छ जळथी भरेली होय छे अने तेमां कमळ खीलेलां
होय छे. –आ वावडीओ जाणे के पृथ्वीनी आंखो होय अने ए आंखो फाडीने आखी पृथ्वी जिनराजना अद्भुत
वैभवने नीरखी रही होय! –एवो अलंकार करतां कवि भगवानदासजी कहे छे के–
है नीर मांहि नीरज फुलान
मानहु निज नैना भू खुलान,
जिनराज विभव देखन अपार
बहु नैन धारि कीन्हो शिंगार।”
(अनुसंधान टाईटल पृष्ठ ३ उपर)