Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953).

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: શ્રાવણ : ૨૦૦૯ : આત્મધર્મ–૧૧૮ : ૨૦૯ :
यत्षट्खण्डमही नवोरुनिधयो द्विःसप्तरत्नानि यत्
तुङ्गा यद्द्विरदा रथाश्च चतुराशीतिश्च लक्षाणि यत्।
यच्चाष्टादशकोटयश्च तुरगा योषित्सहस्राणि यत्
षड्युक्ता नवतिर्यदेकविभुता तद्धाम धर्मप्रभोः।।१८१।।
अर्थः– वह तो छै खंडकी पृथ्वी और वे बडी बडी नौ निधि तथा वे समस्त सिद्धिके करनेवाले चौदहरत्न और
वे चौरासीलाख बडे बडे हाथी तथा विमान के समान चौरासीलाख बडे बडे रथ और वे अठारह करोड पवनके समान
चंचल घोड
े तथा वे देवांगना के समान छानवे हजार स्त्रियां तथा वह इन समस्त विभूतियोंका चक्रवर्तीपना इत्यादि
समस्त विभूति धर्मके प्रतापसे ही मिलती है, इसलिये भव्यजीवों को ऐसे धर्मकी आराधना अवश्य करनी चाहिए।
[અહીં ધર્મ કહેતાં ધર્મની સાથેના વિશિષ્ટ પુણ્ય સમજવા; તેના પ્રતાપથી જ ચક્રવર્તીનો વૈભવ વગેરે વિભૂતિ મળે છે–
એમ અહીં કહ્યું છે.)
ગાથા ૧૮૪માં કહે છે કે ––
जन्मोच्चैः कुल एव संपदधिके लावण्यवारांनिधि–
र्नीरोगं वपुरायुरादि रायुरख्रिलं धर्माद्ध्रुवं जायते।
संपदाकर अधिक उत्तमकुलमें जन्म तथा लावण्य और निरोग शरीर तथा आयु आदि समस्त बात निश्चयसे
धर्मके प्रतापसे ही मिलती है।
[અહીં પણ ઉપરની ગાથા પ્રમાણે ધર્મ કહેતાં પુણ્ય સમજવા.)
પદ્મનંદી પંચવિંશતિમાં ધર્મોપદેશ અધિકારના ૧૮પમા શ્લોકમાં કહે છે કે ––
××× शौर्यत्यागविवेकविक्रमयशः सम्पत्सहायादयः
सर्वे धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं धर्म विना किंचनः।।
[अर्थः] ××× वीरत्व दान विवेक विक्रम कीर्ति सम्पत्ति सहाय आदिक वस्तु स्वयमेव धर्मात्माको आकर
आश्रय कर लेते हैं, किन्तु धर्मके बिना कोई भी वस्तु नहि मिलती, इसलिये जो मनुष्य वीरत्वादि वस्तुओंको चाहते हैं
उनको चाहिये कि वे निरंतर धर्म करें जिससे बिना परिश्रमसे वे वस्तुऐं मिल जायें।।
[––ધર્મની સાથેના પુણ્યથી બાહ્ય ઈચ્છિત વસ્તુ મળે છે –એમ અહીં સમજવું.)
શ્લોક ૧૮૬ માં કહે છે કે ––
सौभागीयसि कामिनीयसि सुतश्रेणीयसि श्रीयसि
प्रासादीयसि यत्सुखीयसि सदा रूपीयसि प्रायसि।
यद्वानन्तसुखामृतम्बुधिपरस्थानीयसीह ध्रुवं
निर्धूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम्।।
[अर्थः] जो तुम सौभाग्यकी इच्छा करते हो और कामिनीकी अभिलाषा करते हो तथा बहुतसे पुत्रोंके प्राप्त करनेकी
इच्छा करते हो और जो यदि तुम्हारे उत्तम लक्ष्मीके प्राप्त करने की इच्छा है वा उत्तम मकान पानेकी इच्छा है अथवा यदि तुम
सुख चाहते हो तथा उत्तमरूपके मिलनेकी इच्छा करते हो और समस्त जगतके प्रिय बनना चाहते हो अथवा जहांपर सदा
अविनाशी सुख की राशि मौजूद है ऐसे उत्तम मोक्षरूपी स्थानको चाहते हो तो तुम नानाप्रकारके दुःखोंको देनेवाली
आपत्तियोंके दूर करनेवाले जिन भगवानकर बताये हुए धर्ममें ही अपनी बुद्धि को स्थिर करो––धर्म का ही आराधन करो।।
भावार्थ –सर्व संपदा तथा सुखको देनेवाला तथा समस्त आपदा तथा दुःखोंको दूर करनेवाला एक सच्चा धर्म ही है।।
શ્લોક ૧૮૭માં કહે છે કે ––
संछन्नं कमलैर्मरावपि सरः सौधं वनेडप्पुन्नतं
कामिन्यो गिरिमस्तके ऽपि सरसाः साराणि रत्नानि च।
जायन्ते ऽपि च लेप[प्य] काष्ठ घटिताः सिद्धिप्रदा देवताः
धर्मश्चेदिह वाञ्छितं तनुभृतां किं किं न संपद्यते।।
[अर्थः] यद्यपि मरुदेश निर्जल कहा जाता है परंतु धर्मके प्रभावसे मारवाडमें भी मनोहर कमलोंकरसहित
तालाब हो जाते हैं; और वनमें मकानादि कुछ भी नहि होते परंतु धर्मके प्रतापसे वहां पर भी विशाल घर बन जाते हैं;
उसही प्रकार यद्यपि निर्जन पहाड
में किसी भी मनोज्ञ वस्तुकी प्राप्ति नहि होती तो भी धर्मात्मा पुरुषोंको धर्मकी कृपासे
वहांपर भी मनको हरण करनेवाली स्त्रियोंकी तथा उत्तम उत्तम रत्नोंकी प्राप्ति होजाती है; और यद्यपि चित्रामके तथा
काठके बनाये हुवे देवता कुछ भी नहि दै सकते तो भी धर्मके माहात्म्यसे वे भी वांछित पदार्थोको देनेवाले हो जाते हैं;
विशेष कहांतक कहा जाय? यदि संसारमें धर्म है तो जीवोंको कठिनसे कठिन वस्तुकी प्राप्ति भी बातकी बातमें हो
जाती है। इसलिये भव्य जीवोंको सदा धर्मका ही आराधन करना चाहिये।।