Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953).

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: ૨૦૮ : આત્મધર્મ–૧૧૮ : શ્રાવણ : ૨૦૦૯ :
[भावार्थ–] बीज विना धान्य न होय तैसें धर्म विना सम्पदा न होय यह प्रसिद्ध है। (*અહીં ધર્મ કહેવાથી પુણ્ય સમજવું).
ગાથા ૪૩૨માં કહે છે કે ––
अलियवयणं पि सच्चं उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती।
धम्मपहावेण णरो अणओ वि सुहंकरो होदि।।४३२।।
धर्मके प्रभावकरि जीवके झूंठ वचन भी सत्य वचन होय हैं, बहुरि उद्यमरहितके भी लक्ष्मीकी प्राप्ति होय हैं––
बहुरि अन्यायकार्य भी सुखका करणहारा होय है।
भावार्थः “जो पूर्वे धर्म सेया होय तो ताके प्रभावतैं उद्यम विना भी संपत्ति मिलै” [અહીં પણ ધર્મ કહેતાં પુણ્ય સમજવું.)
શ્રી ભગવતી આરાધનામાં કહે છે કે ––
“या लक्ष्मी कोई कुलवानमें, रूपवानमें, बलवानमें, शूरवीरमें, कृपणमें, कायरमें, अकुलीनमें, पूज्यमें,
धर्मात्मामें, पराक्रमीमें, अधर्मीमें कहूंमें नहि रमे है, पूर्व जन्ममें जे पुण्य किये तिनके प्राप्त होई ××××” [पृः ५४७–८]
[गा. १७३१] पावोदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स।
दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण।।
अर्थः इस जगतमें मनुष्यके पापका उदयकरि हस्त मैं प्राप्त भया हू जो अर्थ कहिये धन, सो नाशकूं प्राप्त होय
है। अर पुण्यवान पुरुषकै पुण्यकर्मके उदयकरि विना यत्न ही अति दूरतैं धन आय प्राप्त होय है।।
भावार्थः लाभांतरायका क्षयोपशम होय तदि जतन विना ही अनेक दूरि क्षेत्रतेंहू अचिंत्य धन आय प्राप्त होय
है। अर जब लाभांतराय तथा असाताकर्मका तीव्र उदय होय, तब बडे जतन करि रक्षा करते करते हू हस्तमें धर्या
धन हू नष्ट होय है।।
[गा. १७३३] पुण्णोदएण कस्सइ गुणे असंते वि होइ जसकित्ती।
पाओदएण कस्सइ सगुणस्स वि होइ जसधाओ।।
अर्थः पुण्यके उदयकरिके कोउके गुण नहि होते हू जगतमें जसकीर्ति प्रकट होय है अर गुणसहित हू कोऊके
पापके उदयकरिके जसका नाश होइ अपजस प्रकट होय है।।
[गा. १७३४–५] णिरुवक्कमस्स कम्मस्स फले समुवट्ठिदंमिदुक्खंमि।
जादि जरामरणरुजा चिंताभयवेदणादीए।।
जीवाण णत्थि कोई ताणं सरणं च जो हविज्ज इदं।
पायालमदिगदो वियण मुच्चइ सकम्मउदयम्मि।।
[अर्थः] उदय आये पीछे जाका इलाज नहि ऐसा कर्मका फल जो जन्म, जरा, मरण, रोग, चिंता, भय,
वेदना, दुःख इनकूं प्राप्त होते जीवनिके कोऊ रक्षा करनेवाला शरण नहि है, अपने बंधनरूप किये कर्मनिके उदय होतें
पातालमें प्राप्त हुवा हू नहि छूटत है।। [भावार्थ––] पातालमें घसेगा तिसकूं हू कर्मका फल जो दुःख जन्म मरण जरा
रोग शोक भय वेदना जाइ प्राप्त होंयगे।।
[गा. १७४२] रोगाणं पडिगारो णत्थि य कम्मे णरस्स समुदिण्णे।
रोगाणं पडिगारो होदि हु कम्मे उवसमंते।।
[अर्थः] मनुष्य के असातावेदनीय कर्मकी उदीरणा होय तदि रोगनिका इलाज नहि होय है, जिसकाल
असातावेदनीयकर्मका उपशम होय तिसकाल औषधादिकनिकरि रोगका इलाज होय है।
[गा. १७४३] विज्जाधरा य बलदेववासुदेवा य चक्कवट्टी वा।
देविंदा वि ण सरणं कस्सइ कम्मोदए होंति।।
[अर्थः] अशुभकर्मका उदय होइ तब विद्याधर बलदेव वासुदेव चक्रवर्ती तथा देवेन्द्र हू कोऊके शरण नहि है,
रक्षक नहि है। अशुभकर्मका उपशम होइ तथा पुण्यकर्मका उदय होइ तदि समस्त रक्षक होइ हैं।।
[गा. १७४८] रोगादि वेदणाओ वेदयमाणस्स णिययकम्मफलं।
पेच्छंता वि समक्खंकिंचिविणकरंति से णियया।।
[अर्थः] अपने कर्मका फल जो रोगादिक वेदना तिनकूं भोगता जीवके अपना निजमित्र कुटुंबादिक प्रत्यक्ष
देखता हू किंचित् दुःख दूरि नहि करि सके है! तो परलोकमें कौन सहायी होयगा? एकाकी नरकादिकनिमैं कर्मका
फलकूं भोगेगा।
[गा. १७५२] जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइओ।
सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ।।
[अर्थः] बहुरि इस जीवने जो सम्यक्त्व चारित्र श्रुतज्ञानका अभ्यासमय धर्म किया है सो परलोकमें जीवके
गुणकारक सहायी होय है। इस धर्म विना कोऊही अपना सहायी हितू नहि है। धर्मके सहाय तैं [अर्थात् धर्मकी साथ
में होनेवाले पुण्यसे] स्वर्गके महर्द्धिक देव तथा अहमिंद्रपणा, इन्द्रपणा, तीर्थंकरपणा, चक्रीपणा, सुंदर कुल, जाति,
रूप, बल, विद्या, जगतमें पूज्यता ये समस्त प्राप्त होय हैं।।
શ્રી પદ્મનંદી પંચવિંશતિમાં પ્રથમ અધિકારની ૧૮૧ મી ગાથામાં કહે છે કે––