: શ્રાવણ : ૨૦૦૯ : આત્મધર્મ–૧૧૮ : ૨૦૭ :
दुःखानि जनयन्ति।
[हिंदी अर्थः] “वे निदानबंधसे उपार्जन किये पुण्यकर्म जीवको दूसरे भवमें राजसम्पदा देते हैं। उस
राज्यविभूतिको अज्ञानी जीव पाकर विषय भोगोंको छोड नहि सकता, उससे नरकादिक के दुःख पाता है। ’
(પરમાત્મપ્રકાશ પાનું: ૧૯૮)
पुण्णेण होइ विहवो विहवेण भओ मऐण मइ–मोहो।
मइ–मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ।।६०।।
[हिंदी अर्थ] पुण्यसे घरमें धन होता हैं और धनसे अभिमान, मानसे बुद्धि भ्रम होता है, बुद्धिके भ्रम होनेसे
[अविवेकसे] पाप होता है, इसलिये ऐसा पुण्य हमारे न होवे।
“जो मिथ्याद्रष्टि संसारी अज्ञानी जीव है उसने पहले उपार्जन किये भोगोंकी वांछारूप पुण्य उसके फलसे
प्राप्त हुई घरमें सम्पदा होनेसे अभिमान होता है।
संस्कृत टीका– ‘पुण्येन विभवो विभूतिर्भवति’ (પરમાત્મપ્રકાશ પાનું ૨૦૧)
શ્રી તત્ત્વાર્થસૂત્રમાં કહે છે કે––
वेदनीये शेषाः।। ९–१६।।
अर्थः– शेष ग्यारह परीषह अर्थात् क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श
और मल परीषह वेदनीय कर्मके उदयमें होती हैं।।
“अचिंत्य विभूतियुक्त अर्हंतपदका देनेवाला जो कर्म है वह तीर्थंकरनामकर्म है’ [राजवार्तिक भाषा पृ. ८७८]
चक्रधरपना–आदि विशेष उच्चगोत्र आदि पुण्यकर्मो के उदयके फलरूप है..’ [राजवार्तिक भाषा पृ. ८७९]
સ્વામી કાર્તિકેયાનુપ્રેક્ષામાં કહે છે કે––
जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं।
सा किं बंधेइ रइं इयरजणाणं अपुण्णाणं।।१०।।
[अर्थ––] जो लक्ष्मी कहिये संपदा पुण्यकर्म के उदयसहित जे चक्रवर्ति तिनके भी शाश्वती नाहीं तो अन्य जे
पुण्य उदयरहित तथा अल्पपुण्यसहित जे पुरुष हैं तिनसहित कैसे राग बांधे? –अपितु नाहीं बांधे।
ગાથા ૧૯ ના અર્થમાં કહે છે કે :
“जो पुरुष पुण्य के उदय करि वधती जो लक्ष्मी ताहि निरंतर धर्मकार्यनि विषे दे है सो पुरुष पंडितनिकरि
स्तुति करनयोग्य है।”
ગાથા પ૭માં કહે છે કે––
सत्त् वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू।
कम्मविवायवसादो एसो संसारसब्भावो।।५७।।
[अर्थ––] कर्मके उदयके वशतें वैरी होय सो तो मित्र होय जाय है, बहुरि मित्र होय सो वैरी होय जाय है, यहु संसार
का स्वभाव है। [भावार्थ–] पुण्यकर्मके उदयतैं वैरी भी मित्र होय जाय अर पापकर्मके उदयतैं मित्र भी शत्रु होय जाय।
આગળ ૩૧૯મી ગાથામાં કહે છે કે ––कोई कहै कि व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी दे है–उपकार करै है, तिनिकूं
पूजने–वन्दने कि नाहीं? ” –ताकूं कहै है––
ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणइ उवयारं।
उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि।।३१९।।
[अर्थ–] या जीवकूं कोई व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी नाहीं देवैं हैं बहुरि कोई अन्य उपकार भी नाहीं करैं हैं,
जीवके पूर्वसंचित शुभअशुभ कर्म हैं ते ही उपकार तथा अपकार करैं हैं।
[भावार्थ–] जो पूर्वकर्म शुभाशुभ संचित है सो ही या प्राणीकै सुख–दुःख, धन–दरिद्र, जीवन–मरनकूं करै है।
भत्तीए पुज्जमाणो विंतरदेवो वि देदि जदि लच्छी।
तो किं धम्मं कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी।।३२०।।
[अर्थ––] सम्यग्द्रष्टि ऐसैं विचारै जो व्यंतरदेव ही भक्तिकरी पूज्या हूवा लक्ष्मी दे है तो धर्म काहेकूं कीजिये?
[અહીં ‘धर्म’ કહેતાં પુણ્ય સમજવું. વ્યંતરદેવો લક્ષ્મી નથી આપતા પણ પુણ્યથી જ લક્ષ્મી મળે છે–એમ બતાવવા માટે
આ કથન છે.)
ભાવાર્થમાં કહે છે કે : “सम्यग्द्रष्टि तो मोक्षमार्गी है, संसारकी लक्ष्मीकूं हेय जानै है ताकी वांछा ही न करै है,
जो पुण्यका उदयतैं मिले तो मिलो, न मिले तो मति मिलौ।”
આગળ ૪૨૭મી ગાથામાં કહે છે કે––जीव लक्ष्मी चाहे हैं सो धर्म विना कैसे होय––
लच्छिं वंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणई।
बीएण विणा कुत्थ वि किं दीसदि सस्सणिपत्ति।।४२७।।
[अर्थ–] यह जीव लक्ष्मीकूं चाहै है बहुरि जिनेन्द्रका कह्या मुनि–श्रावक धर्म विषै आदर–प्रीति नाहीं कहै है तौ
लक्ष्मीका कारण तौ धर्म है, तिस बिना कैसें आवै? जैसे बीज विना धान्यकी उत्पत्ति कहूं दीखै हैं? –नाहीं दीखै है.