: ૨૧૦ : આત્મધર્મ–૧૧૮ : શ્રાવણ : ૨૦૦૯ :
* શ્લોક ૧૮૮માં કહે છે કે––
दूरादभीष्टमभिगच्छति पुण्ययोगात्
पुण्याद्विना करतलस्थमपि प्रयाति।
अन्यत्परं प्रभवतीह निमित्तमात्रं
पात्रं बुधा भवत निर्मलपुण्यराशेः।।
[अर्थः] पुण्यके उदयसे दूर रही हुई भी वस्तु अपने आप आकर प्राप्त हो जाती है किंतु जब पुण्यका उदय
नहि रहता तब हाथमें रक्खी हुई भी वस्तु नष्ट हो जाती है। यदि पुण्य–पापसे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ सुख–दुःखका
देनेवाला है तो एक निमित्तमात्र है अर्थात् पुण्य–पाप ही सुख–दुःखका देनेवाला है। इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि
भव्यजीवोंको चाहिये कि वे निर्मल पुण्यके पात्र बनें।।
[भावार्थ] ××× सुख तथा दुखका देनेवाला अथवा भलाबुरा करनेवाला एक पुण्य तथा पाप ही है।।
* શ્લોક ૧૮૯માં આચાર્યદેવ કહે છે કે ––
कोप्यन्घोऽपि सुलोचनो ऽपि जरसा ग्रस्तो ऽपि लावण्यवान्
निःष्प्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्याधुष्यते मन्मथः।
उद्योगोज्झित चेष्टितोऽपि नितरामालिङ्गयते च श्रिया
पुण्यादन्यमपि प्रशस्तमखिलं जायेत यदुर्घटम्।।
[अर्थः] पुण्यके उदयसे अंधा भी सुलोचन कहलाता है तथा पुण्यके ही उदयसे रोगी भी रूपवान कहलाता
है और निर्बल भी पुण्यके उदयसे सिंहके समान पराक्रमी कहा जाता है तथा पुण्यके ही उदयसे बदसूरत भी
कामदेवके समान सुन्दर कहा जाता तथा पुण्यके ही उदय से आलसीको भी लक्ष्मी अपने आप आकर वर लेती है,
विशेष कहांतक कहा जाय? जो उत्तमसे उत्तम वस्तुएँ संसारमें दुर्लभ कही जाती हैं वे भी पुण्य के ही उदयसे सब
सुलभ हो जाती हैं अर्थात् वे बिना परिश्रमके ही प्राप्त हो जाती हैं।।
* શ્લોક ૧૯૧માં કહે છે કે ––
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते
सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः।
देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे
धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं रत्नैः परैर्वर्षति।।
[अर्थः] जो मनुष्य धर्मात्मा हैं उनके धर्मके प्रभावसे भयंकर सर्प भी मनोहर हार बन जाते हैं तथा पैनी तलवार भी
उत्तम फूलोंकी माला बन जाती है और धर्मके प्रभावसे ही प्राणघातक विष भी उत्तम रसायन बन जाता है, तथा धर्म के ही
माहात्म्यसे बैरी भी प्रीति करने लग जाता है और प्रसन्नचित होकर देव धर्मात्मा पुरुषकें आधीन हो जाते हैं। ग्रन्थकार
कहते हैं कि विशेष कहांतक कहा जाय? जिस मनुष्यके हृदयमें धर्म है अर्थात् जो मनुष्य धर्मात्मा है उसके धर्मके प्रभावसे
आकाशसे भी उत्तम रत्नोंकी वर्षा होती है।। इसलिये भव्य जीवोंको धर्मसे कदापि विमुख नहि होना चाहिये।।
* શ્લોક ૧૯૪માં કહે છે કે ––
××× ‘लक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता विदधति मनुजा ये सदा धर्ममेकम्। ’ अर्थात् जो मनुष्य सदा एक धर्म को ही धारण
करते हैं उन धर्मात्मा पुरुषोंको उत्तमसे उत्तम लक्ष्मीकी भी प्राप्ति होती है।
* શ્લોક ૧૯પમાં કહે છે કે ––
धर्मः श्रीवशमन्त्र एष परमो धर्मश्च कल्पद्रूमो
धर्मः कामगवीप्सितप्रदमणिर्धर्मः परं दैवतम्।
धर्मः सौख्यपरंपरामृतनदीसम्भूतिसत्पर्वतो
धर्मो भ्रातरूपास्यतां किमपरैः क्षुद्रैरसत्कल्पनैः।।
[अर्थः] समस्त प्रकारकी लक्ष्मीको देनेवाला होने के कारण यह धर्म लक्ष्मीके वश करनेको मंत्रके समान है
तथा यह धर्म वांछित चीजोंका देनेवाला कल्पवृक्ष है और धर्म ही कामधेनु है तथा धर्म ही समस्त चिन्ताओंको पूर्ण
करनेवाला चिंतामणि रत्न है और धर्म ही उत्कृष्ट देवता है, और धर्मही उत्कृष्ट सुखोंकी राशिरूपी जो अमृत नदी
उसके उत्पन्न करानेमें पर्वतके समान है; इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे भाईयो! व्यर्थ नीच कल्पनाये करके
क्या? केवल धर्मही का सेवन करो, जिससे तुम्हारे सर्वकार्य सिद्ध हो जावें।।
* શ્લોક ૧૯૬માં શ્રી પદ્મનંદી આચાર્ય કહે છે કે ––
आस्तामस्य विधानतः पथि गतिर्धर्मस्य वार्तापि यैः
श्रुत्वा चेतसि धार्यते त्रिभुवने तेषां न काः सम्पदः।
दूरे सज्जलपानमज्जनसुखं शीतैः सरोमारुतेः
प्राप्तं पद्मरजः सुगन्धिभिरपि श्रान्तं जनं मोदयेत्।।
[अर्थः] धर्मके मार्गमें विधिपूर्वक गमन करना तो दूर रहो किन्तु जो धर्मकी बातोंके प्रेमी मनुष्य केवल उसको
सुनकर धारण कर लेते हैं उनके भी तीनलोकमें समस्त सम्पदाओंकी प्राप्ति होती है; ––जिसप्रकार शीतल जलके