: શ્રાવણ : ૨૦૦૯ : આત્મધર્મ–૧૧૮ : ૨૧૧ :
पीनेका सुख तथा स्नान करनेका सुख तो दूर ही रहो अर्थात् उससे तो शांति होती ही है किन्तु जो तालाबकी वायु कमलोंकी
रजकर सुगन्धित हो रही है तथा शीतल है उससे उत्पन्न हुआ जो सुख वह भी थके हुए मनुष्य को शान्त कर देता है।।
* પદ્મનંદી પંચવિંશતિકાના દાનઅધિકારના ૨૦મા શ્લોકમાં કહે છે કે ––
सत्पात्रदान जनितोन्नतपुण्यराशि–
रेकत्र वा परजने नरनाथलक्ष्मीः।
आद्यात्परस्तदपि दुर्गत एव यस्मादा–
आगामिकालफलदायि न तस्य किंचित्।।
[अर्थः] एक मनुष्य तो उत्तम पात्रदान से पैदा हुए श्रेष्ठ पुण्य का संचय करता है और दूसरा राज्यलक्ष्मी का
अच्छीतरह भोग करता है परंतु उन दोनों में दूसरा राज्यलक्ष्मी का भोग करनेवाला ही पुरुष दरिद्री है क्योंकि
आगामी काल में उसको किसी प्रकार की संपत्ति आदि का फल नहि मिल सकता, किन्तु पात्रदान करनेवाले को तो
आगामीकाल में उत्तम संपदारूपी फलों की प्राप्ति होती है।
* દાન અધિકારના ૩૮મા શ્લોકમાં કહે છે કે ––
पुण्यक्षयात्क्षयमुपैति न दीयमाना
लक्ष्मीरतः कुरुत संततपात्रदानम्।
कूपे न पश्यत जलं गृहिणः समन्तादा–
कृष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम्।।
[अर्थः] हे गृहस्थो। कुआ से सदा चारों तरफ से निकला हुआ भी जल जिस प्रकार निरन्तर बढ़ता ही रहता
है––घटता नहि है, उसी प्रकार संयमो पात्रों के दान में व्यय की हुई लक्ष्मी सदा बढ़ती ही जाती है –घटती नहि,
किन्तु पुण्य के क्षय होने पर ही वह घटती है। इसलिये मनुष्य को सदा संयमी पात्रो में दान देना चाहिए।
* શ્લોક ૪૪માં કહે છે કે ––
सौभाग्यशौर्य–सुखरूपविवेकिताद्या
विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म।
सम्पद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात्–
तस्मात् किमत्र सतर्त क्रियते न यत्न।।
[अर्थः] सौभाग्य शूरता सुख विवेक आदिक तथा विद्या शरीर धन घर और उत्तम कुल में जन्म ये सब बातें
उत्तमादि पात्रदान से ही होती हैं, इसलिये भव्य जीवों को सदा पात्रदान में ही प्रयत्न करना चाहिए।
* અનિત્ય અધિકારમાં પદ્મનંદી આચાર્યદેવ કહે છે કે ––
दुर्वारार्जितकर्मकारणवशादिष्टे प्रणष्टे नरे
यच्छोकं कुरुते तदत्र नितरामुन्मत्तलीलायितम्।
यस्मात्तत्र कृते न सिध्यति किमप्येतत्परं जायते
नश्यन्त्येव नरस्य मूढमनसो धर्मार्थकामादयः।।६।।
[अर्थः] जिसका निवारण नहि हो सकता ऐसा, पूर्वभव में संचित कर्मरूपी कारणके वशसे अपने प्रिय स्त्री,
पुत्र, मित्र आदिके नष्ट होने पर जो मनुष्य उन्मादी मनुष्यकी लीलाके समान इस संसारमें बिना प्रयोजनका अत्यन्त
शोक करता है उस मूर्ख मनुष्यको उस प्रकारके व्यर्थ शोक करनेसे कुछ भी नहि मिलता, तथा उस मूढ मनुष्यके धर्म
अर्थ काम आदिका भी नाश हो जाता है। इसलिये विद्वानोंको इस प्रकारका शोक कदापि नहि करना चाहिये।।
दुर्लंध्याद्भवितव्यताव्यतिकरान्नष्टे प्रिये मानुषे
यच्छोकः क्रियते तदत्र तमसि प्रारभ्यते नर्तनम्।
सर्वं नश्वरमेव वस्तु भुवने मत्वा महत्या धिया
निर्धूताखिलदुःखसंततिरहो धर्मः सदा सेव्यताम्।।९।।
[अर्थः] जिसका दुःख से भी उल्लंघन नहि हो सकता ऐसी जो भवितव्यता [दैव] उसके व्यापार से अपने
प्रिय स्त्री, पुत्र, आदि के नष्ट होने पर जो मनुष्य शोक करता हैं वह अंधकार में नृत्य को आरंभ करता है–ऐसा जान
पडता है। अतः आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्य जीवो! अपने ज्ञान से संसार में सब चीजों को विनाशीक समझकर
समरत दुःखों की संतान को जड से उड़ानेवाले धर्म का ही तुम सदा सेवन करो।
पूर्वोपार्जित कर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा
तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतद्ध्रुवम्।
शोकं मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखदं धर्मं कुरुष्वादरात्
सर्पे दूरमुपागते किमिति भोस्तद्घृष्टिराहन्यते।।१०।।
[अर्थः] पूर्वभव में संचित कर्म के द्वारा जिस प्राणी का अन्त जिस काल में लिखा गया है उस प्राणी का अंत
उसी काल में होता हैं ऐसा भलीभांति निश्चय करके हे भव्य जीवो! तुम अपने प्रिय स्त्र, पुत्र आदि के मरने पर भी शोक
छोड़ दो तथा बड़े आदर से धर्म का आराधन करो, क्योंकि सर्प के दूर चले जाने पर उसकी रेखा का पीटना व्यर्थ है।