: श्रावण : २००९ : आत्मधर्म–११८ : २१९ :
जाय एवा जलसहित तो त्यां नदीओ छे, तथा जेथी शरीर दग्ध थई जाय एवो प्रचंड त्यां पवन छे, ए
नारकीओ एकबीजाने अनेक प्रकारे दुःखी करे छे, घाणीमां पीले, शरीरना खंडखंड करे, हांडीमां रांधे, कोरडा मारे
तथा लालचोळ गरम लोखंड आदिनो स्पर्श करावे––ईत्यादि वेदना परस्पर उपजावे छे. त्रीजी नरक सुधी तो
असुरकुमारदेव जईने पोते पीडा आपे वा तेमने परस्पर लडावे.” (पानुं–७०)
* “अघाति कर्मोना उदयना निमित्तथी शरीरादिकनो संयोग थाय छे.” (पानुं–३०८)
[उपर प्रमाणे मोक्षमार्ग–प्रकाशकमां अनेक जग्याए स्पष्ट कथन छे के अघाति कर्मना उदयना निमित्ते
बहारनी सामग्रीनो संयोग थाय छे.)
* श्रीमद् राजचंद्र आ संबंधमां ‘मोक्षमाळा’ ना त्रीजा पाठमां लखे छे के––
“एक जीव सुंदर पलंगे पुष्पशय्यामां शयन करे छे, एकने फाटल गोदडी पण मळती नथी; एक
भातभातनां भोजनथी तृप्त रहे छे, एकने काळी जारना पण सांसा पडे छे; एक अगणित लक्ष्मीनो उपभोग ले
छे, एक फूटी बदाम माटे आतुर थईने घेरघेर भटके छे; एक मधुरां वचनोथी मनुष्योनां मन हरे छे, एक
अवाचक जेवो थईने रहे छे; एक सुंदर वस्त्रालंकारथी विभूषित थई फरे छे, एकने खरा शियाळामां फाटेलुं कपडुं
पण ओढवाने मळतुं नथी; एक रोगी छे, एक प्रबळ छे; एक बुद्धिशाळी छे, एक जडभरत छे; एक मनोहर
नयनोवाळो छे, एक अंध छे; एक लूलो छे, एक पांगळो छे; एक कीर्तिमान छे, एक अपयश भोगवे छे; एक
लाखो अनुचरो पर हुकम चलावे छे, एक तेटलाना ज टूंबा सहन करे छे; एकने जोईने आनंद ऊपजे छे.
एकने जोतां वमन थाय छे; एक संपूर्ण ईन्द्रियोवाळो छे. एक अपूर्ण छे; एकने दीनदुनियानुं लेश पण भान
नथी ने एकनां दुःखोनो किनारो पण नथी; एक गर्भाधानथी हरायो, एक जन्म्यो के मूओ, एक मूएलो
अवतर्यो, एक सो वर्षनो वृद्ध थईने मरे छे; कोईना मुख, भाषा अने स्थिति सरखां नथी. मूर्ख राजगादी पर
खमाखमाथी वधावाय छे ने समर्थ विद्वानो धक्का खाय छे!
––आम आखा जगतनी विचित्रता भिन्न–भिन्न प्रकारे तमे जुओ छो; ए उपरथी तमने कंई विचार
आवे छे? ××× विचार आवतो होय तो कहो––ते शा वडे थाय छे?
–पोतानां बांधेलां शुभाशुभकर्मो वडे.
* वळी तेओ लखे छे के––
“ज्ञानी पोतानुं उपजीवन–आजीविका पण पूर्वकर्मानुसार करे छे.” (पृष्ठ: २२२)
“स्वाभाविक कोई पुण्यप्रकारवशात् सुवर्णवृष्टि ईत्यादि थाय एम कहेवुं असंभवित नथी.” (पृ. २३प)
“××× मुमुक्षुए पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मानुसार आजीविकादि प्राप्त थशे एम विचारी मात्र निमित्तरूप
प्रयत्न करवुं घटे, पण भयाकुळ थई चिंता, के न्यायत्याग करवो न घटे; केमके ते तो मात्र व्यामोह छे; ––ए
समाववा योग्य छे. प्राप्ति शुभाशुभ प्रारब्ध अनुसार छे.” (पृ. ४४३)
“मननी वृत्ति शुद्ध अने स्थिर थाय एवो सत््समागम प्राप्त थवो बहु दुर्लभ छे. वळी तेमां आ
दुषमकाळ होवाथी जीवने तेनो विशेष अंतराय छे. जे जीवने प्रत्यक्ष सत्समागमनो विशेष लाभ प्राप्त थाय ते
महत् पुण्यवानपणुं छे. (पा. ४६०)
* जैनसिद्धांत प्रवेशिकामां पुण्य–पापनी व्याख्या नीचे प्रमाणे करी छे––
प्र. ३३६ः पुण्यकर्म किसको कहते हैं?
उ. ३३६ः जो जीव को इष्ट वस्तु की प्राप्ति करावे।
प्र. ३३७ः पापकर्म किसको कहते हैं?
उ. ३३७ः जो जीवको अनिष्ट वस्तुकी प्राप्ति करावे।
––आ रीते अनेक प्रमाणभूत आधारोथी ए वात सिद्ध छे के जीवने वर्तमानमां ईष्ट–अनिष्ट सामग्रीओनो
संयोग पूर्वना पुण्य–पापकर्मना उदयानुसार थाय छे, जीवना वर्तमान प्रयत्नथी नहीं. कोई जीव धर्मात्मा–गुणवान
होवा छतां जो पूर्वना पुण्य न होय तो तेने लक्ष्मी वगेरेनो संयोग नथी होतो; अने गुणहीन जीवने पण पूर्वना
पुण्यने लीधे लक्ष्मी वगेरेनो संयोग होय छे. माटे बाह्य सामग्री ते पूर्वना पुण्य पापकर्मनुं फळ छे.