: २२० : आत्मधर्म–११८ : श्रावण : २००९ :
भावलिंगी
मुनिनुं स्वरूप
(“जैनदर्शन–शिक्षणवर्ग”नी उत्तम श्रेणीनी परीक्षामां पूछायेला पहेलां प्रश्नना उत्तररूप निबंध)
मुनिदशानो अलौकिक महिमा छे, अहो!
मुनिवरो तो केवळीप्रभुना पाडोशी छे, तेओ
पंचपरमेष्ठी पदमां भळी गया छे अने केवळज्ञान
लेवानी तैयारीवाळा छे –जाणे हमणां श्रेणी मांडीने
केवळज्ञान लीधुं के लेशे –एवी तेमनी आत्मजागृति
छे. ए धन्यदशामां दुःख के कलेश नथी पण
सिद्धभगवान जेवो अपूर्व महाआनंद छे. अहो!
धन्य ते मुनिवरा! संयमसुधासागरमां झूलता ए
संतोने नमस्कार हो.
* शुद्धोपयोगी दिगंबर संतोने नमस्कार हो! *
जेने पोतानुं आत्मकल्याण करवुं होय तेणे साचा देव–गुरु–शास्त्रनुं स्वरूप बराबर ओळखवुं जोईए;
देव–गुरु–शास्त्रनी ओळखाण वगर यथार्थ ज्ञान–श्रद्धान् थतां नथी. वळी देव अने शास्त्रनी ओळखाण पण
गुरु द्वारा थाय छे. गुरुनुं स्वरूप ओळखवामां ज जेनी भूल होय तेने तो देव अने शास्त्र वगेरेमां पण भूल
होय छे. माटे गुरुनुं स्वरूप यथार्थपणे ओळखवुं जोईए.
सामान्यपणे तो सम्यग्दर्शन–ज्ञानना धारक धर्मात्मा पण ज्ञानगुरु होई शके छे, पण अहीं मोक्षमार्गमां
मुख्यपणे सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक चारित्रना धारक एवा दिगंबर मुनि ते गुरु छे. अंतरमां सम्यग्दर्शन–
ज्ञानपूर्वक चारित्रदशानो जे शुद्धोपयोग प्रगट्यो छे ते मुनिओनुं भावलिंग छे अने एवा भावलिंगी मुनिओने
बहारमां वस्त्ररहित दिगंबर दशा ज होय छे –ते द्रव्यलिंग छे. भावलिंगी मुनिओनी अंतर अने बाह्यदशा केवी
होय –तेनुं विशेष वर्णन मोक्षमार्ग–प्रकाशकमां नीचे प्रमाणे कर्युं छे––
* मुनिओनी अंतरंग अवस्था *
प्रथम जेने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान तो थया छे अने पछी विरागी बनी समस्त परिग्रह छोडी
शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करी अंतरंगमां तो ए शुद्धोपयोगवडे पोते पोताने अनुभवे छे,
परद्रव्यमां अहंबुद्धि धारता नथी,
पोताना ज्ञानादिक स्वभावोने ज पोताना माने छे, परभावोमां ममत्व करता नथी.
परद्रव्य वा तेना स्वभावो ज्ञानमां प्रतिभासे छे तेने जाणे छे तो खरा, परंतु तेने ईष्ट–अनिष्ट मानी
तेमां राग–द्वेष करता नथी,
शरीरनी अनेक प्रकारनी अवस्था थाय छे तेमज बहारमां अनेक प्रकारना संयोग–वियोगरूप निमित्त
बने छे परंतु त्यां कांई पण सुख–दुःख मानता नथी,
पोताने योग्य बाह्यक्रिया जेम बने छे तेम बने छे परंतु तेने खेंचीताणीने करता नथी,
पोताना उपयोगने बहु भमावता नथी पण उदासीन थई निश्चलवृत्तिने धारण करे छे,
ज्यारे शुद्धोपयोगमां स्थिर न रही शके त्यारे शुभोपयोग पण थाय छे, जे वडे ते शुद्धोपयोगना बाह्य
साधनोमां, –पंचमहाव्रतादिमां अनुराग करे छे, परंतु ए रागभावने पण हेय जाणी दूर करवा ईच्छे छे,
अने तीव्र कषायना अभावथी हिंसादिरूप अशुभोपयोग