बहिरंगदशा केवी होय छे ते कहे छे :–
आवश्यक, केशलोच, स्नाननो अभाव, नग्नता,
अदंतधोवन, भूमिशयन, स्थिति भोजन, अने
एकवार आहारग्रहण –ए अठ्ठावीस मूळगुणो छे)
क्षुधा–तृषा ईत्यादि बावीस परिषहोने सहन करे छे,
बार प्रकारना तपने आदरे छे,
कदाचित् ध्यानमुद्राधारी प्रतिमावत् निश्चल थाय छे,
कदाचित् अध्ययनादिक बाह्यधर्मक्रियामां प्रवर्ते छे.
छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने आत्माना अपार आनंदमां
झूलता होय छे. जेने बहारमां वस्त्ररहित दिगंबरदशा
अने अठ्ठावीस मूळगुण वगेरे होवा छतां अंतरमां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप भावलिंग प्रगट्युं नथी
तेने मुनिदशा नथी, अने ज्यां बहारमां ज वस्त्रादिनुं
ग्रहण छे तथा २८ मूळगुण नथी त्यां तो द्रव्यलिंग
पण नथी.
मात्र देह ते संयम हेतु होय जो;
अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नही
देहे पण किंचित् मूर्छा नव होय जो...
–अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
वळी आगळ जतां कहे छे के––
नग्नभाव मुंडभाव सह अस्नानता,
अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो;
केश, रोम, नख के अंगे शृंगार नहि,
–अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
अहो, अहीं तो अत्यारे आवा मुनिना दर्शन
महाविदेहक्षेत्रमां आवी दशावाळा अनेक मुनिओ
अत्यारे पण विचरी रह्या छे, अने मोक्षने साधी रह्या
छे.
साधु छे, परंतु जेने हजी आत्मानुं भान ज न होय ते
तेने क्यांथी साधे? अने तेने साधुपणुं–मुनिदशा क्यांथी
होय? सम्यग्दर्शन वगर तो मुनिदशा होय ज नहि.
एकाग्रताना उग्र पुरुषार्थ वडे चारित्रदशा प्रगट करीने
मुनि थाय छे. जेम छोतां, काचली अने रातप ए
त्रणेयथी टोपरानो सफेद–मीठो गोळो जुदो छे तेम
शरीर, कर्म अने रागद्वेष ए त्रणेयथी पार चैतन्य–
आनंदनो गोळो आत्मा छे, तेना अतीन्द्रिय
अनुभवमां निर्विकल्पपणे एकदम लीन थतां
मुनिओने पहेलांं सातमुं गुणस्थान प्रगटे छे. आवा
आत्मअनुभव सिवाय मुनिपणुं कोई जीवने होतुं
केवळज्ञान के मुक्ति थती नथी.
श्रमणना बहिरंग अने अंतरंग लिंगोनुं वर्णन करतां
आरंभ मूर्छा शून्यता, उपयोग योग विशुद्धता,
निरपेक्षता परथी, –जिनोदित मोक्षकारण लिंग आ.
कुंदकुंदाचार्यदेव वगेरे समर्थ संतोए दांडी पीटीने स्पष्ट
जाहेर कर्युं छे. आनाथी विरुद्ध मुनिदशा कोई माने ––
वस्त्रादि परिग्रह राखीने पण मुनिपणुं मनावे तो तेने
निषेध करतां ‘सूत्र पाहुड’ मां कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के ––
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिगोदम्।। १८।।