Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 22 of 25

background image
: श्रावण : २००९ : आत्मधर्म–११८ : २२१ :
परिणतिनुं तो अस्तित्व ज रह्युं नथी.
––एवी भावलिंगी मुनिओनी अंतरंगदशा
होय छे. अने ज्यां आवी अंतरंगदशा होय त्यां
बहिरंगदशा केवी होय छे ते कहे छे :–
* मुनिओनी बहिरंग अवस्था *
उपर कही तेवी अंतरंग अवस्था थतां बाह्यमां
भावलिंगी मुनि दिगंबर सौम्य मुद्राधारी थया छे,
शरीर संस्कारादि विक्रियाथी रहित थया छे,
वनखंडादि विषे वसे छे,
अठ्ठावीस मूळगुणोनुं अखंडित पालन करे छे –
(पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच ईन्द्रियनिरोध, छ
आवश्यक, केशलोच, स्नाननो अभाव, नग्नता,
अदंतधोवन, भूमिशयन, स्थिति भोजन, अने
एकवार आहारग्रहण –ए अठ्ठावीस मूळगुणो छे)
क्षुधा–तृषा ईत्यादि बावीस परिषहोने सहन करे छे,
बार प्रकारना तपने आदरे छे,
कदाचित् ध्यानमुद्राधारी प्रतिमावत् निश्चल थाय छे,
कदाचित् अध्ययनादिक बाह्यधर्मक्रियामां प्रवर्ते छे.
कोई वेळा योग्य आहार–विहारादि क्रियामां
सावधान थाय छे.
––ए प्रमाणे जेओ भावलिंगी जैनमुनि छे ते
सर्वेनी आवी ज अवस्था होय छे. आवा मुनिवरो
छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने आत्माना अपार आनंदमां
झूलता होय छे. जेने बहारमां वस्त्ररहित दिगंबरदशा
अने अठ्ठावीस मूळगुण वगेरे होवा छतां अंतरमां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप भावलिंग प्रगट्युं नथी
तेने मुनिदशा नथी, अने ज्यां बहारमां ज वस्त्रादिनुं
ग्रहण छे तथा २८ मूळगुण नथी त्यां तो द्रव्यलिंग
पण नथी.
“अपूर्व अवसर” काव्यमां ए धन्यदशानुं
वर्णन करतां श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के––
सर्व भावथी औदासीन्य वृत्ति करी,
मात्र देह ते संयम हेतु होय जो;
अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नही
देहे पण किंचित् मूर्छा नव होय जो...
–अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
वळी आगळ जतां कहे छे के––
नग्नभाव मुंडभाव सह अस्नानता,
अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो;
केश, रोम, नख के अंगे शृंगार नहि,
द्रव्य–भाव संयममय निर्ग्रंथ सिद्ध जो...
–अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
अहो, अहीं तो अत्यारे आवा मुनिना दर्शन
पण अति दुर्लभ थई पड्या छे, –परंतु
महाविदेहक्षेत्रमां आवी दशावाळा अनेक मुनिओ
अत्यारे पण विचरी रह्या छे, अने मोक्षने साधी रह्या
छे.
साधयति इति साधुः अर्थात् चैतन्यस्वभावमां
एकाग्रता वडे आत्मानी मुक्तदशाने जे साधे छे ते
साधु छे, परंतु जेने हजी आत्मानुं भान ज न होय ते
तेने क्यांथी साधे? अने तेने साधुपणुं–मुनिदशा क्यांथी
होय? सम्यग्दर्शन वगर तो मुनिदशा होय ज नहि.
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने पण गृहस्थपणामां कदी
मुनिदशा होती नथी. सम्यग्दर्शन पछी अंतरमां विशेष
वैराग्यपूर्वक सर्वसंग परित्यागी थई, अंतरस्वरूपमां
एकाग्रताना उग्र पुरुषार्थ वडे चारित्रदशा प्रगट करीने
मुनि थाय छे. जेम छोतां, काचली अने रातप ए
त्रणेयथी टोपरानो सफेद–मीठो गोळो जुदो छे तेम
शरीर, कर्म अने रागद्वेष ए त्रणेयथी पार चैतन्य–
आनंदनो गोळो आत्मा छे, तेना अतीन्द्रिय
अनुभवमां निर्विकल्पपणे एकदम लीन थतां
मुनिओने पहेलांं सातमुं गुणस्थान प्रगटे छे. आवा
आत्मअनुभव सिवाय मुनिपणुं कोई जीवने होतुं
नथी. अने आवी मुनिदशा वगर कोई पण जीवने
केवळज्ञान के मुक्ति थती नथी.
‘श्रामण्यमार्गना प्रणेता’ भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेव प्रवचनसारनी २०प–२०६ गाथामां
श्रमणना बहिरंग अने अंतरंग लिंगोनुं वर्णन करतां
कहे छे के––
जन्म्या प्रमाणे रूप, लुंचन केशनुं, शुद्धत्व ने
हिंसादिथी शून्यत्व, देह–असंस्करण –ए लिंग छे.
आरंभ मूर्छा शून्यता, उपयोग योग विशुद्धता,
निरपेक्षता परथी, –जिनोदित मोक्षकारण लिंग आ.
आ रीते जैनशासनना भावलिंगी मुनिओनी
अंतर–बाह्यदशा केवी होय ते भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेव वगेरे समर्थ संतोए दांडी पीटीने स्पष्ट
जाहेर कर्युं छे. आनाथी विरुद्ध मुनिदशा कोई माने ––
वस्त्रादि परिग्रह राखीने पण मुनिपणुं मनावे तो तेने
निषेध करतां ‘सूत्र पाहुड’ मां कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के ––
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्तेसु
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिगोदम्।। १८।।