Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः २४७९ः २३३ः
–ए रीते जे सदा जीव अने कर्मना भेदनो अभ्यास करे छे, ते संयत नियमथी प्रत्याख्यान धारण करवाने
शक्तिमान छे. जेने जीव अने कर्मना भेदनुं ज्ञान नथी तेने कदी सम्यक्चारित्र होतुं नथी. अहीं जीव अने कर्मना
भेदनो अभ्यास कह्यो एटले शुं?–के कर्मथी भिन्न शुद्ध ज्ञानानंद आत्माने जाणीने तेमां एकाग्रतानो अभ्यास
करवो तेनुं नाम जीव अने कर्मना भेदनो अभ्यास छे, ने ते मुक्तिनुं कारण छे.
“ कर्मना उदय प्रमाणे विकार करवो ज पडे, अगियारमा गुणस्थाने चडेलो जीव कर्मना उदयने लीधे
पाछो नीचे आवे छे”–आवा प्रकारनी जेनी मान्यता छे तेने जीव अने कर्म वच्चेनुं भेदज्ञान नथी. कर्मनाउदयना
प्रमाणमां ज विकार थाय–एम तो कोई जीवने बनतुं नथी. जो उदय प्रमाणे ज विकार थाय एम होय तो तो
कोई पण प्रकारनो पुरुषार्थ करवानुं जीवना हाथमां रहेतुं नथी, बस! जेवो उदय आवे तेम परिणम्या करवुं
एटले ते मान्यतामां निगोदमांथी नीकळवानो अवकाश पण न रह्यो. उदयना प्रमाणमां विकार थाय ए मान्यता
तो घणी ऊंधी छे.
वळी अगियारमा गुणस्थाने तो मोहकर्मनो उदय छे ज नहि, तो कर्मना उदयने लीधे अगियारमे
गुणस्थानेथी पडयो–ए वात क्यां रही? अगियारमा गुणस्थानेथी नीचे आवनार पोतानी पर्यायनी ते प्रकारनी
नबळाईना कारणे ज नीचे आवे छे, कर्मना उदयने कारणे नहि. अरे, अनादिथी निगोदमां रहेलो जीव पण तेना
पोताना तेवा ऊंधा भावथी ज त्यां रह्यो छे. श्री गोम्मटसारजीमां पण कह्युं छे के–
अत्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो।
भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति।।१९७।।
जेओ अनादिथी त्रसपणुं पाम्या नथी एवा अनंत जीवो निगोदमां छे, तेओ पोताना सुप्रचुर
भावकलंकने लीधे ज निगोदवासने छोडता नथी.
अरिहंत भगवान चार अघातिकर्मोना उदयने लीधे संसारमां रोकाया छे–एम खरेखर माने ते पण मूढ
छे. खरेखर कर्मने लीधे तेओ नथी रोकाया, पण तेमना आत्मामां हजी ते प्रकारना विभावनी लायकात छे तेथी
ज तेमने संसारअवस्था छे. हजी तो कर्मने लीधे जीवने विकार थाय एवी जेनी मान्यता छे तेने कर्म अने
आत्माना जुदापणानुं ज्ञान नथी एटले विकार साथे तो तेने एकत्वबुद्धि होय ज. ज्यां विकारमां एकत्वबुद्धि
होय त्यां शुद्धआत्मानी निःसंदेह प्रतीत होय नहीं; अने शुद्ध आत्मानी प्रतीत वगर अनंत भवनो संदेह
यथार्थपणे टळे ज नहि.
* क्रमबद्धपर्यायना निर्णयमां आवती निःसंदेहता *
* ज्यां अनंतभवनो संदेह छे त्यां धर्मनी अंशमात्र रुचि नथी *
अहीं कोई ऊंधी द्रष्टिवाळो जीव एम कुतर्क करे के “अमारे क्रमबद्धपर्यायमां अनंत भव थवाना होय
तो?–अथवा अमारे क्रमबद्धपर्यायमां मिथ्यात्व थवानुं होय तो?” तो श्री आचार्यदेव तेने कहे छे के अरे मूढ!
क्रमबद्धपर्यायने तुं समज्यो ज नथी. क्रमबद्धपर्यायनी यथार्थ प्रतीत करनारने तो ज्ञानस्वभावनी द्रष्टि थई गई,
तेनुं परिणमन ज्ञान तरफ वळी गयुं, तेने हवे अनंत भव होय ज नहीं. आम छतां ‘मारी पर्यायना क्रममां
अनंतभव हशे तो’–एम जे संदेह करे छे ते जीव तीव्र मिथ्याद्रष्टि छे; तेणे नथी तो आत्माने देख्यो, नथी सर्वज्ञने
मान्या, के नथी क्रमबद्धपर्यायने मानी. अनंतभवनी शंकावाळा जीवने धर्मनी अंशमात्र रुचि ज थई नथी.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म तो भवना नाशनुं कारण छे, आवा धर्मनुं सेवन करे अने अनंत भवनी शंका
रहे–एम कदी बने ज नहि, सरोवरना किनारे जाय तोय ठंडी हवा आवे छे ने खातरी थई जाय छे के हवे पाणी
नजीकमां ज छे, तेम जेने आत्माना धर्मनी सम्यक् रुचि थई तेने अंदरथी अपूर्व शांतिना भणकार आवे छे अने
अल्पकाळमां मोक्ष थवानी निःसंदेह खातरी थई जाय छे. जेने आवी निःशंकता नथी अने भवनो संदेह छे ते जीव
कर्मथी भिन्न आत्माने नथी देखतो पण कर्मने ज अने अशुद्ध आत्माने ज देखे छे.
जेम–‘केवळीभगवाने मारा अनंत भव दीठा हशे.....’ एवा संदेहवाळो जीव मिथ्याद्रष्टि छे, तेणे
खरेखर केवळी भगवानने जाण्या ज नथी; तेम–‘क्रमबद्ध पर्यायमां पोताने मिथ्यात्व आवशे....’ एवी
शंकावाळो जीव पण मिथ्याद्रष्टि ज छे, तेणे खरेखर क्रमबद्धपर्यायने जाणी ज नथी. जेम केवळज्ञाननो यथार्थ
निर्णय करनारने पोताना ज्ञानस्वभावनी प्रतीत थई जाय छे ने भवनी शंका छूटी जाय छे, तेम क्रमबद्धपर्याय
जेणे खरेखर जाणी होय तेने