के व्यवहारना आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी. भूतार्थ–स्वभावना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे. शुद्धनय आत्माना
परमार्थ स्वरूपने देखाडे छे तेथी ते ज अंगीकार करवा जेवो छे, तेना अवलंबनथी सम्यग्दर्शन थाय छे. जोके शुद्धनय
पोते तो पर्याय छे पण अहीं अध्यात्मद्रष्टिमां शुद्धनय अने तेनो विषय ए बंने अभेद छे तेथी शुद्धनयने पण
भूतार्थ कह्यो छे. जेओ शुद्धनयथी आत्माना परमार्थ स्वरूपने देखे छे, तेओ ज सम्यग्द्रष्टि छे. शिष्ये पूछयुं हतुं के
व्यवहारनय केम अनुसरवायोग्य नथी? तेना उत्तरमां आचार्यभगवान कहे छे के शुद्धनय वडे आत्मानो परमार्थ
स्वभावनो आश्रय करवाथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे, व्यवहारनयनो आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी माटे ते
व्यवहारनय अनुसरवायोग्य नथी.
कर्मना संयोगवाळो अशुद्ध आत्मा ज भासे छे पण कर्मना संयोग विनानो आत्मानो शुद्धस्वभाव तेने भासतो
नथी. पर्यायमां विकार अने कर्मनो संयोग होवा छतां धर्मी जीव शुद्धनय वडे आत्मा अने कर्मनी भिन्नतानो
विवेक करीने अंतरमां शुद्धज्ञायकस्वभावपणे पोताने अनुभवे छे. आ रीते शुद्धनयवडे आत्माना
सम्यक्स्वभावनुं अवलोकन करनार सम्यग्द्रष्टि छे. अज्ञानीने शुद्धनयरूपी आंख ज ऊघडी नथी एटले ते
विकारने ज देखे छे पण शुद्ध आत्माने नथी देखतो, शुद्ध आत्माने देखवा माटे ते आंधळो छे. सम्यग्द्रष्टि तो
शुद्धनयरूपी अतीन्द्रिय चक्षु वडे पोताना आत्माने शुद्धपणे देखे छे, अंतरमां तेने ज्ञानचक्षु खूली गया छे.
स्वरूपने देखी शकतो नथी. एवा व्यवहारथी विमोहित द्रष्टिवाळा जीवने आत्मा अने कर्मनी जुदाईनो विवेक
नथी, जीवनो स्वभाव शुं अने विकार शुं तेना भेदनी तेने खबर नथी, कर्म प्रेरक थईने मने विकार करावे छे
अने विकार जेटलो ज हुं छुं–एम ते माने छे एटले तेने एकाकार ज्ञायक मूर्ति आत्मा ढंकाई गयो छे,–तेने ते
देखतो नथी. तेने आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव! तुं तारी शुद्धनयरूपी आंखने उघाड अने तारा आत्माने कर्मथी
ने विकारथी भिन्न एकाकार शुद्धज्ञायकस्वरूपे देख. आवा आत्माने देखवो ते ज साची द्रष्टि छे, ने एवी द्रष्टि ज
मुक्तिनुं कारण छे; आवी द्रष्टि प्रगट कर्या वगर कदी भवभ्रमणनो अंत आवतो नथी.
होवानो ज्यां संदेह वर्ते छे त्यां तेना कारणरूप अनंतानुबंधी कषाय पडयो ज छे; ते जीवे आत्माना भवरहित
स्वभावने देख्यो ज नथी. आ तरफ अंतरमां चैतन्यस्वभावना अनंतसामर्थ्यनी अस्तिने चूक्यो एटले तेनाथी
विरुद्ध एवा अनंतभवनुं अस्तित्व अज्ञानीने भास्युं; ज्ञानीनी द्रष्टिमां तो पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावनुं
अस्तित्व भास्युं छे, ने ते स्वभावमां भवनी नास्ति छे तेथी तेने भवनी शंका होती नथी. अज्ञानीने ऊंधी
द्रष्टिमां भव ज देखाय छे पण ज्ञानस्वभाव नथी देखातो; ज्ञानी भूतार्थद्रष्टिथी एकला ज्ञानस्वभावने ज देखे छे;
तेमां भव छे ज नहीं.
एकत्वबुद्धिथी जीव संसारमां रखडे छे अने स्व–परनुं भेदज्ञान करीने ते भेदज्ञानना अभ्यासथी जीव मुक्ति
पामे छे. नियमसारनी ८२ मी गाथामां कहे छे के–