भाद्रपदः २४७९ः २३१ः
–अने–
सम्यग्द्रष्टिनी भवभ्रमणथी छूटकारानी निःशंकता
(श्री मानस्तंभ–प्रतिष्ठा महोत्सव दरमियान पू. गुरुदेवश्रीनुं
प्रवचन सोनगढः वीर सं. २४७९ चैत्र सुद २)
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सम्यग्द्रष्टि शुद्धनयरूपी अतीन्द्रियचक्षु वडे
पोताना आत्माने शुद्धपणे देखे छे, अंतरमां
तेने ज्ञानचक्षु खूली गयां छे. आचार्यदेव कहे छे
के अरे जीव! तुं तारी शुद्धनयरूपी आंखने
उघाड अने तारा आत्माने शुद्धज्ञायकस्वरूपे
देख. आवी द्रष्टि वगर कदी भवभ्रमणनो अंत
आवतो नथी...जे जीव आवुं अपूर्व सम्यग्दर्शन
प्रगट करे छे तेनुं परिणमन फरी जाय छे, तेने
अनंत भवनी शंका टळी जाय छे ने
आत्मामांथी सिद्धदशाना भणकार आवी जाय
छे. अंतर्मुख थईने आत्माना भूतार्थस्वभावनो
अनुभव करवो ते अपूर्व सम्यग्दर्शन थवानी
रीत छे.
‘भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो’
धर्मनी मूळ शरूआत कई रीते थाय छे ते आ समयसारनी अगियारमी गाथामां आचार्यदेवे
बताव्युं छे. आ देहमां रहेलो दरेक आत्मा ज्ञानादि अनंतगुणनो पिंड छे, ते आत्माना अभेदरूप
अवलंबनथी आत्माने सम्यग्दर्शन थाय छे; ते सम्यग्दर्शन ज धर्मनुं मूळ छे, त्यांथी ज धर्मनी शरूआत
थाय छे. आ सिवाय कोई निमित्तना, रागना, पर्यायना के व्यवहारना अवलंबनथी धर्म थतो नथी.
सम्यग्दर्शन वखते देव–गुरु वगेरे निमित्तनो संयोग होय पण तेना अवलंबनथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी; ते
वखते शुभराग होय तेना अवलंबने पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी; पर्यायमां ज्ञाननो उघाड होय तेना
अवलंबने पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी; अने अखंड आत्मामां ज्ञान–दर्शन वगेरे गुणोना भेद पाडीने
लक्षमां लेवाथी पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी–एकरूप अभेद आत्माना अवलंबने ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
निमित्त, राग, पर्याय अने गुणभेद–ए बधाय व्यवहारने अभूतार्थ करीने एटले के तेना उपरनी द्रष्टि
छोडीने अभूतार्थरूप अभेद आत्माने द्रष्टिमां लेवो ते सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन कहो....शांति कहो...हित
कहो....श्रेय कहो....कल्याण कहो....धर्म कहो के अनादिना अज्ञाननो नाश कहो.....तेनी आ ज रीत छे. आ
सिवाय बीजी रीते सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक छे एम कह्युं हतुं परंतु ते व्यवहार पोते अंगीकार करवा जेवो नथी केम