Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः २३०ः आत्मधर्मः ११९
–एम बने नहि. जुओ तो खरा! आ अपूर्व संधि....!
* धन्य ए वक्ता.....अने धन्य ए श्रोता.... *
समयसारना श्रोताने श्री आचार्यप्रभु भलामण करे छे के जेवो अखंड ज्ञानानंद आत्मा हुं दर्शावुं छुं
तेवा आत्माने तुं तारा अनुभवथी प्रमाण करजे....अंदरथी होंश लावीने हा पाडजे, हा ज पाडजे....ना पाडीश
नहि. जुओ! आ वक्ता अने आ श्रोता! उपदेशक वक्ता शुद्धात्मा ज देखाडवा मागे छे अने श्रोताने पण
शुद्धात्मानुं स्वरूप समजवानो ज उत्साह छे. अहीं आचार्यदेवे कह्युं के ‘हुं जे शुद्धात्मा देखाडुं तेने तुं प्रमाण
करजे’–तेमां आदेशथी हुकम नथी कर्यो पण यथार्थ स्थिति जणावी छे के जे जीव शुद्धात्माने समजवानो कामी छे
ते ज अमारो श्रोता छे. सत्नो आदर करीने समजनारा पात्र जीवो अमारा संयोगमां न होय एम बने नहि.
अमे अल्पकाळे सिद्ध थनारा, तो अमारी वातनी ना पाडनारा अमारा संयोगमां होय नहि. तीर्थंकरभगवानना
समवसरणमां जेम अभव्य जीव न होय तेम, साक्षात् तीर्थंकरभगवान पासेथी सांभळीने अमे जे शुद्ध आत्म–
स्वभावनी वात करीए छीए तेनो नकार करनारा अमारी सभामां होय नहि.
भगवानने पूर्वे साधकदशामां धर्मवृद्धिना विकल्पथी तीर्थंकरनामकर्म बंधायुं, ते कर्मना निमित्ते जे वाणी
खरी ते वाणी सांभळीने धर्म समजनारा जीवो न होय एम बने नहि. भगवाननी वाणी धर्मवृद्धिनुं निमित्त
छे....पण कोने?–के सामे धर्म समजनारा जीवो छे तेने. आ रीते, समजवानी योग्यतावाळा पात्र जीवो छे तेने
माटे वाणी निमित्त छे–आवो सहज निमित्तनैमित्तिक मेळ छे.–आम छतां ‘मने न समजाय’ एम कहीने ऊंधो
जीव ते वाणी साथेना निमित्तनैमित्तिकपणानी संधिने तोडी नांखे छे....पण एवा ऊंधा जीवनी अहीं गणतरी
नथी; अहीं तो हा पाडीने समजनारा पात्र जीवोनी ज वात छे. पात्र श्रोताजनोने तो वाणी काने पडतां ज एम
थाय के ‘अहो! मने आवी अपूर्व वाणी मळी छे तो हुं नक्की मारी पात्रताथी समजीने अल्पकाळे मुक्त थईश.
भगवान शुद्धात्मस्वभावनी आवी अपूर्व वात मारे काने पडी अने मारा अंतरमां ते बेठी....तेथी हवे
अल्पकाळमां मारी मुक्ति थया विना रहे नहि.’
आचार्यदेवे पांचमी गाथामां शुद्धात्मानो अनुभव करवानुं कह्युं छे तो त्यां सामा सांभळनार जीवमां
तेवी लायकात जोईने तेम कह्युं छे.–‘कोनी लायकात....? ’ के जे समजे तेनी! अहीं तो बधा जीवोने सागमटे
नोतरुं छे....तेमांथी कोई नीकळी जाय तो ते तेनी नालायकी छे; पण तेवा जीवोने अमे श्रोता तरीके स्वीकारता ज
नथी. जे ऊंडेथी हा पाडीने यथार्थ वात समजी जाय तेवा ज श्रोता अहीं लीधा छे.–एवा श्रोता धन्य छे, तेनुं
जरूर कल्याण थई जाय छे. आ रीते वक्ता अने श्रोताना भावनी संधि छे.
* दिव्यध्वनिनो ढंढेरो *
दिव्यध्वनिमां चौद ब्रह्मांडना जीवोने भगवाननुं आमंत्रण छे के ‘अरे जीवो! तमारामां परमात्मा
थवानुं सामर्थ्य भर्युं छे....तमे मुक्तिने लायक छो....आ मोक्षनां मांडवा नंखाया छे, तमे पण तमारी
परमात्मदशाने प्राप्त करवा माटे आ मोक्षना मांडवे आवो! मोक्षनां मूळ ऊंडा छे; संसार तो एक समयनो
उपरनो विकार छे, तेनुं मूळ ऊंडुं नथी. अंदर स्वभावना ऊंडाणमां विकार नथी भर्यो पण मोक्षनुं सामर्थ्य भर्युं
छे. आवा तमारा स्वभावनी श्रद्धा करो....ए ज धर्मनुं मूळ छे. धर्मनां मूळियां ऊंडा छे ने विकार तो क्षणिक छे;
संसारना काळ करतां मोक्ष अवस्थाओनो काळ अनंतगुणो छे, संसारनी जेटली पर्यायो वीती तेना करतां
अनंतगुणी मोक्षपर्यायो प्रगटवानुं सामर्थ्य आत्मामां भर्युं छे.–आवा आत्मस्वभावनुं भान करीने तेना
महिमामां लीन थतां संसारभ्रमण टळीने मुक्तदशा थई जाय छे. माटे हे जीवो! अंतरअवलोकन वडे आवा
आत्माने ओळखो, तेनो महिमा करो....तो अल्पकाळमां सिद्धदशा प्रगटे...”–आ प्रमाणे आत्माने ओळखीने
सिद्ध थवा माटे भगवाननी वाणीनुं आमंत्रण छे.
(–चालु)
तो ते पण मिथ्याद्रष्टि ज छे
जगतना जीवो जेम ईश्वरने जगत्कर्ता माने छे तेम जैनसंप्रदायमां रहीने पण जो कोई एम माने के
आत्मा परनुं कांई करे–अथवा कर्म जीवने रखडावे,–तो ते पण अन्यमतिनी जेम मिथ्याद्रष्टि ज छे, वस्तुना
स्वतंत्र स्वभावनी तेने प्रतीत नथी.
–प्रवचनमांथी