Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः २४७९ः २३पः
मूढ जीवनी मान्यता छे. कोई एम कहे छे के कार्यमां पचास दोकडा उपादानना अने पचास दोकडा निमित्तना;
त्यारे बीजो कोई वळी एम कहे छे के पुरुषार्थना एकावन दोकडा अने कर्मना ओगणपचास दोकडा, एटले
एणे पुरुषार्थनो एक दोकडो वधारे राख्यो;–पण ए बंनेनी वात खोटी छे. हराम छे–कोईनो एकेय दोकडो
बीजामां होय तो! उपादानना सोए दोकडा उपादानमां छे अने निमित्तना सोए दोकडा निमित्तमां छे;
विकारना सोए दोकडा विकारमां छे ने कर्मना सोए दोकडा कर्ममां छे. आत्मा अने कर्म बंने भेगा थईने
विकारभाव थयो–एम नथी. आत्मामां कर्मनुं मिश्रण थई गयुं छे तेथी आत्माना आनंदनो स्वाद आवतो
नथी–एम नथी, परंतु मिथ्याद्रष्टि जीव रागने ज पोतानुं स्वरूप मानीने तेना स्वादमां अटके छे ने
भूतार्थस्वभाव तरफ वळीने शुद्ध आत्मानो अनुभव करतो नथी तेथी ज तेने पोताना आनंदनो स्वाद
आवतो नथी.
वळी–सम्यग्दर्शन थया पछी तरत चारित्र केम नथी लई शकता?–के चारित्रमोहकर्मना उदयनुं जोर छे
तेथी;–आम निमित्तथी कहेवाय, पण खरेखर वस्तुनुं स्वरूप एवुं नथी. उपचारथी कथन करवामां आवे ते जुदी
वात छे ने मूळ सिद्धांत जुदो छे. कोई तो एम कहे छे के आत्मा तो कर्मनुं खिलौनुं (रमकडुं) छे, जेम कर्म रमाडे
तेम आत्माने रमवुं पडे!–परंतु ए तद्न खोटी वात छे, आवी ऊंधी मान्यतावाळा अज्ञानी जीवो कर्मने ज
आत्मा माने छे, कर्मथी भिन्न स्वभावनी तेमने श्रद्धा ज नथी, अने भूतार्थस्वभावनी श्रद्धा वगर सम्यग्दर्शन
होय नहि.
हुं एक अखंड ज्ञायकभाव छुं, निमित्तो साथे मारे कोई संबंध नथी–आवी भूतार्थस्वभावनी द्रष्टि
अज्ञानी जीव करतो नथी, अने आत्माने अशुद्ध ज अनुभवे छे; परंतु भूतार्थस्वभावना अनुभव वगर
कदी पण कल्याण थतुं नथी. हजी तो कर्म मने अशुद्धता करावे छे–एम जे माने तेने तो कर्म अने आत्मानुं
भेदज्ञान पण नथी तो विकारथी भेदज्ञान करीने भूतार्थस्वभाव तरफ तो ते क्यांथी वळे? क्रोधभाव पोते
करे अने पछी कहे के ‘क्रोधना उदयथी क्रोध थई गयो, तेमां मारो वांक नथी, केम के क्रोधना उदयथी जीवने
क्रोध थाय–एम गोम्मटसारमां पण कह्युं छे.’–तो ज्ञानी तेने कहे छे के अरे मूढ! शुं गोम्मटसार वांचीने तें
आवो सार काढयो? गोम्मटसारमां शुं कह्युं छे ए वातने तुं समज्यो ज नथी. त्यां तो तारा क्रोधपरिणाम
वखते सामे केवुं निमित्त होय छे तेनुं ज्ञान कराववा निमित्तथी कथन कर्युं छे. जेने अंर्तस्वभावनी साची
द्रष्टि नथी तेना बधां पडखां भूलवाळां होय छे, अने जेने यथार्थ स्वभावनी द्रष्टि थई छे तेना बधा
पडखां यथार्थ होय छे. द्रष्टिनुं जोर क्यां जाय छे–ते ज मूळ वस्तु छे. जेने आत्माना ज्ञायक स्वभाव उपर
द्रष्टि नथी अने निमित्त उपर द्रष्टि छे ते पोताना आत्माने रागी–द्वेषी–अज्ञानी ज अनुभवे छे, हुं रागी–
हुं द्वेषी–हुं कर्मथी बंधायेलो इत्यादि अनेकप्रकारे अशुद्धरूपे ज ते पोताने माने छे, पण शुद्धनयना पुरुषार्थ
वडे आत्मा अने कर्मनो विवेक करीने पोताना एकाकार शुद्ध ज्ञायक स्वभावने ते देखतो नथी एटले तेने
साची तत्त्वश्रद्धा थती नथी. जेणे भूतार्थ द्रष्टि प्रगट करीने पोताना आत्माने कर्मथी भिन्न शुद्ध ज्ञानस्वरूपे
जाण्यो ते बधा आत्माने पण निश्चयथी तेवा ज जाणे छे. अने जे जीव पोताना आत्माने अशुद्ध अने
कर्मवाळो ज देखे छे ते पोतानी ऊंधी द्रष्टिथी बीजा जीवोने पण तेवा ज माने छे; ते विपरीत मान्यतावाळो
मिथ्याद्रष्टि छे.
* अपूर्व सम्यग्दर्शन थवानी रीत अने सम्यग्द्रष्टिना भणकार *
अनादिनुं मिथ्याद्रष्टिपणुं टळीने अपूर्व सम्यग्दर्शन केम थाय ते अहीं आचार्यदेवे बताव्युं छे.
वर्तमान एक समयमां आत्मानो त्रिकाळ शुद्धस्वभाव अने पर्यायमां विकार–एम बंने प्रकार एक साथे छे.
तेमां त्रिकाळी शुद्धस्वभावने भूलीने विकार ते ज हुं–एवी बुद्धि ते मिथ्यात्व छे. अने ते विकारबुद्धि छोडीने,
त्रिकाळ शुद्धस्वभाव ते हुं–एम अंतर्मुख थईने शुद्धनयथी आत्माना भूतार्थस्वभावनो अनुभव करवो ते
अपूर्व सम्यग्दर्शन थवानी रीत छे. जे जीव आवुं अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे तेनुं परिणमन फरी जाय
छे, तेने अनंत भवनी शंका टळी जाय छे ने आत्मामांथी सिद्धदशाना भणकार आवी जाय छे.
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