तत्त्वनी द्रष्टि विना लोकोए एम ने एम त्यागना गाडां हांकी दीधा छे, अरे! तत्त्वनिर्णयनी दरकार पण करता
नथी. परंतु तत्त्वना निर्णय वगर कोई रीते जन्म–मरणनो अंत आवे तेम नथी. तत्त्वना निर्णय वगर साचो
त्याग तो होय नहि एटले ते त्याग पण बोजारूप लागे.
उपादान भेगां थईने कोई एक त्रीजी अवस्था थाय छे–एम नथी. उपादाननी अवस्था जुदी ने निमित्तनी
अवस्था जुदी. निमित्तने कारणे उपादानमां कांई प्रभाव पडतो नथी, उपादानमां तेनो अभाव छे. समय
समयनुं उपादान स्वाधीन–स्वयंसिद्ध छे. अहो! आवी स्वतंत्रतानी वात लोकोने अनंतकाळथी बेठी नथी,
ने पराधीनता मानीने रखडी रह्या छे. उपादाननी स्वाधीनतानो जेने निर्णय नथी तेने सम्यग्दर्शन
पामवानी योग्यता नथी.
राग नथी. जेम उपादानमां ‘पर्यायनी लायकात’ एवो एक प्रकार छे तेम सम्यग्दर्शनमां ‘आत्माना
अभेद स्वभावनो आश्रय’ एवो एक ज प्रकार छे. देव–गुरु–शास्त्र वगेरे पर निमित्तना आश्रयथी
सम्यग्दर्शन थाय –ए वात तो दूर रही, परंतु पोताना आत्माना गुण–गुणीना भेद पाडीने लक्षमां लेतां
पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी, भेदना आश्रये अभेद आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थतो नथी, जो भेदना
आश्रये लाभ माने तो मिथ्यात्व थाय छे. ‘हुं ज्ञान छुं–हुं दर्शन छुं, हुं चारित्र छुं अथवा हुं अनंत गुणनो
पिंड अखंड आत्मा छुं’–ए प्रमाणे शुभविकल्प करीने ते विकल्परूप व्यवहारने ज जे अनुभवे छे पण
विकल्प तोडीने अभेद आत्माने नथी अनुभवतो ते पण मिथ्याद्रष्टि ज छे. समकितीने तेवो विकल्प आवे
पण तेनी द्रष्टि पोताना भूतार्थस्वभाव उपर छे, विकल्प अने स्वभाव वच्चे तेने भेद पडी गयो छे,
भूतार्थस्वभावनी निर्विकल्प द्रष्टि (–निर्विकल्प प्रतीति) तेने सदाय वर्ते छे. जुओ, आ धर्मात्मानी
अंर्तद्रष्टि! आवी द्रष्टि प्रगटया विना धर्मनी शरूआत थाय नहीं.