Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः २३७ः आत्मधर्मः ११९
उपादान–निमित्त संबंधी तेमने पण विपरीतद्रष्टि होय छे, तेमनी साथे आ वातनो मेळ खाय तेम नथी. यथार्थ
तत्त्वनी द्रष्टि विना लोकोए एम ने एम त्यागना गाडां हांकी दीधा छे, अरे! तत्त्वनिर्णयनी दरकार पण करता
नथी. परंतु तत्त्वना निर्णय वगर कोई रीते जन्म–मरणनो अंत आवे तेम नथी. तत्त्वना निर्णय वगर साचो
त्याग तो होय नहि एटले ते त्याग पण बोजारूप लागे.
उपादाननी विधि निरवचन कही तेनो अर्थ एम छे के तेमां एक ज प्रकार छे; जेटला प्रश्न पूछो ते
बधामां एक ज उत्तर छे के ज्यां ज्यां कार्य थाय छे त्यां त्यां उपादाननी लायकातथी ज थाय छे.
* ज्ञानावरणकर्मने लीधे ज्ञान अटकयुं?–के ना; पोतानी लायकातने लीधे ज ज्ञान अटकयुं छे.
* गुरुने लीधे ज्ञान थयुं?–ना; पोतानी लायकातथी ज ज्ञान थयुं छे.
* कुंभारे घडो कर्यो?–ना; माटीनी लायकातथी ज घडो थयो छे.
* अग्निथी पाणी ऊनुं थयुं?–ना; पाणी पोतानी लायकातथी ज ऊनुं थयुं छे.
* लोटमांथी रोटली स्त्रीए करी?–ना; लोटनी लायकातथी ज रोटली थई छे.
* कर्मना उदयने लीधे जीवने विकार थयो? ना; जीवनी पर्यायमां तेवी लायकातने लीधे विकार थयो छे.
–आ प्रमाणे सर्वत्र एक ज जवाब छे के उपादाननी तेवी लायकातथी ज कार्य थाय छे. निमित्तो
जुदा जुदा अनेक प्रकारना भले हो पण ते निमित्ते उपादानमां कांई कर्युं नथी, तेम ज निमित्त अने
उपादान भेगां थईने कोई एक त्रीजी अवस्था थाय छे–एम नथी. उपादाननी अवस्था जुदी ने निमित्तनी
अवस्था जुदी. निमित्तने कारणे उपादानमां कांई प्रभाव पडतो नथी, उपादानमां तेनो अभाव छे. समय
समयनुं उपादान स्वाधीन–स्वयंसिद्ध छे. अहो! आवी स्वतंत्रतानी वात लोकोने अनंतकाळथी बेठी नथी,
ने पराधीनता मानीने रखडी रह्या छे. उपादाननी स्वाधीनतानो जेने निर्णय नथी तेने सम्यग्दर्शन
पामवानी योग्यता नथी.
अहीं तो कहे छे के जेम उपादानमां निमित्तनो अभाव छे तेम आत्माना ज्ञानानंदस्वभावनी
अभेदद्रष्टिमां सघळोय व्यवहार अभूतार्थ छे; शुद्धद्रष्टिनो विषय एकाकार शुद्ध आत्मा छे, तेमां भेद के
राग नथी. जेम उपादानमां ‘पर्यायनी लायकात’ एवो एक प्रकार छे तेम सम्यग्दर्शनमां ‘आत्माना
अभेद स्वभावनो आश्रय’ एवो एक ज प्रकार छे. देव–गुरु–शास्त्र वगेरे पर निमित्तना आश्रयथी
सम्यग्दर्शन थाय –ए वात तो दूर रही, परंतु पोताना आत्माना गुण–गुणीना भेद पाडीने लक्षमां लेतां
पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी, भेदना आश्रये अभेद आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थतो नथी, जो भेदना
आश्रये लाभ माने तो मिथ्यात्व थाय छे. ‘हुं ज्ञान छुं–हुं दर्शन छुं, हुं चारित्र छुं अथवा हुं अनंत गुणनो
पिंड अखंड आत्मा छुं’–ए प्रमाणे शुभविकल्प करीने ते विकल्परूप व्यवहारने ज जे अनुभवे छे पण
विकल्प तोडीने अभेद आत्माने नथी अनुभवतो ते पण मिथ्याद्रष्टि ज छे. समकितीने तेवो विकल्प आवे
पण तेनी द्रष्टि पोताना भूतार्थस्वभाव उपर छे, विकल्प अने स्वभाव वच्चे तेने भेद पडी गयो छे,
भूतार्थस्वभावनी निर्विकल्प द्रष्टि (–निर्विकल्प प्रतीति) तेने सदाय वर्ते छे. जुओ, आ धर्मात्मानी
अंर्तद्रष्टि! आवी द्रष्टि प्रगटया विना धर्मनी शरूआत थाय नहीं.
(–मानस्तंभ प्रतिष्ठा–महोत्सवना प्रवचनमांथी.)
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