आत्मानुं शुद्धस्वरूप शुं छे ते वात कदी समज्यो नथी. संसारमां अज्ञानीओने
बधुं सुलभ छे,–एकमात्र आत्मस्वभावनी समज परम दुर्लभ छे. तेथी श्री
आचार्यदेव करुणा करीने ते शुद्धआत्मानुं एकत्वस्वरूप दर्शावता कहे छे के –
समजवानुं बाकी रही गयुं छे ते हुं समजावुं छुं,–तो हे जीवो! तमे तेने प्रमाण
करजो. आ देहदेवळमां रहेलो परंतु देहथी जुदो भगवान आत्मा ज्ञायकमूर्ति छे,
क्षणिक रागद्वेष तो अभूतार्थ छे–नाशवंत छे, ते स्वभावनी साथे एकमेक थई
गयेलां नथी, माटे ते रागद्वेषथी रहित एवा एकाकार ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत
करो, शुद्धद्रष्टिथी जोतां एक ज्ञायकभावरूप आत्मा छे, ते ज भूतार्थस्वभाव छे,
ने ते भूतार्थस्वभावनी द्रष्टिथी ज आत्मानुं सम्यग्दर्शन थाय छे.
गुणस्थानभेद आवे छे तेने जाणे छे खरा पण द्रष्टिमांथी अभेद आत्मस्वभावनुं
अवलंबन कदी छूटतुं नथी, तेना परिणमनमां स्वभाव अने परभाव वच्चेनुं
भेदज्ञान सदाय वर्त्या ज करे छे; राग थाय छे तेने जाणे त्यां ‘आ राग हुं छुं’
एवी आत्मबुद्धि थती नथी पण ‘अखंड चैतन्यस्वभाव ते हुं छुं’ एवी
अखंडद्रष्टि रहे छे.–आनुं नाम भूतार्थनो आश्रय अथवा शुद्धनयनुं अवलंबन
छे. लडाई के विषयभोग वगेरेना पापपरिणाम वखते पण अंतरनी निर्विकल्प
द्रष्टिमांथी अभेद चैतन्यस्वरूपनो आश्रय धर्मीने कदी छूटतो नथी, तेनी प्रतीत
खसती नथी, उपयोगमां भले सदा निर्विकल्पता न रहे, ने राग तरफ के पर
तरफ उपयोग होय, परंतु साधक जीवने द्रष्टिमां तो कदी पण अभेदस्वभावनुं
अवलंबन छूटीने भेदनी प्रधानता थती नथी. भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टि ते ज
सम्यग्दर्शन छे, जो ते द्रष्टि छूटे तो सम्यग्दर्शन रहेतुं नथी; आ रीते
भूतार्थस्वभावना आश्रये ज सम्यग्द्रष्टिपणुं छे.