Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः २४७९ः २३९ः
समकीतनो पुरुषार्थ
जुओ, आ समकीतनो पुरुषार्थ! आवो पुरुषार्थ पूर्वे कदी जीवे कर्यो नथी.
कोई कहे के अमे पुरुषार्थ तो घणो करीए छीए पण समकीत थतुं नथी.–तो ज्ञानी
कहे छे के अरे भाई! तारी वात जूठी छे; यथार्थ कारण आपे अने कार्य न आवे
एम बने नहि. जो कार्य नथी प्रगटतुं तो समज के तारा प्रयत्नमां भूल छे.
सम्यग्दर्शन थवानी जे रीते छे ते रीते अंतरमां यथार्थ प्रयत्न करे अने सम्यग्दर्शन
न थाय–एम बने ज नहि. खरेखर अपूर्व सम्यग्दर्शननो साचो उपाय शुं छे ते
जीवे जाण्युं ज नथी, ने बीजा विपरीत उपायने साचो उपाय मानी लीधो छे. ज्यां
उपाय ज खोटो होय त्यां साचुं कार्य क्यांथी प्रगटे? माटे अहीं समयसारनी
अगियारमी गाथामां आचार्यदेवे सम्यग्दर्शननो साचो अने अफर उपाय बताव्यो
छे. जो आ उपाय समजे अने आ रीते शुद्धनयनुं अवलंबन लईने अंतरना
ज्ञानानंदस्वभावने पकडे तो सम्यग्दर्शननो अपूर्व अनुभव अने भेदज्ञान जरूर
थई जाय.
प्रश्नः–अहीं शुद्धनयनुं, अवलंबन लेवानुं कह्युं परंतु शुद्धनय तो ज्ञाननो
अंश छे–पर्याय छे, शुं ते अंशना अवलंबने सम्यग्दर्शन थाय?
उत्तरः–खरेखर शुद्धनयनुं अवलंबन क्यारे थयुं कहेवाय?.....एकला अंशने
पकडीने तेना ज अवलंबनमां जे अटकयो छे तेने तो शुद्धनय छे ज नहि; ज्ञानना
अंशने अंतरमां वाळीने जेणे त्रिकाळी द्रव्यनी साथे अभेदता करी छे तेने ज
शुद्धनय होय छे, अने आवी अभेदद्रष्टि करी त्यारे शुद्धनयनुं अवलंबन लीधुं एम
कहेवाय छे. एटले ‘शुद्धनयनुं अवलंबन’ एम कहेतां तेमां पण द्रव्य–पर्यायनी
अभेदतानी वात छे; परिणति अंतर्मुख थईने द्रव्यमां अभेद थईने जे अनुभव
थयो तेनुं नाम शुद्धनयनुं अवलंबन छे, तेमां द्रव्य–पर्यायना भेदनुं अवलंबन
नथी. जो के शुद्धनय ते ज्ञाननो अंश छे–पर्याय छे, परंतु ते शुद्धनय अंतरना
भूतार्थ स्वभावमां अभेद थई गयो छे एटले त्यां नय अने नयनो विषय जुदा न
रह्या. ज्यारे ज्ञानपर्याय अंतरमां वळीने शुद्धद्रव्य साथे अभेद थई त्यारे ज
शुद्धनय थयो. आ शुद्धनय निर्विकल्प छे. आवो शुद्धनय कतकफळना स्थाने छे; जेम
मेला पाणीमां कतकफळ औषधि नाखतां पाणी निर्मळ थई जाय छे तेम कर्मथी
भिन्न शुद्ध आत्मानो अनुभव शुद्धनयथी थाय छे; शुद्धनयथी भूतार्थ स्वभावनो
अनुभव करतां आत्मा अने कर्मनुं भेदज्ञान थई जाय छे जुओ आ साची
औषधि! अनादिथी जीवने मिथ्यात्वरूपी रोग लागु पडयो छे, ते आ शुद्धनयरूपी
औषधिथी ज मटे छे. स्वसन्मुख पुरुषार्थ वडे शुद्धनयनुं अवलंबन लईने शुद्ध
आत्मानो अनुभव करतां ज तत्काळ भेदज्ञान थई जाय छे अने अनादिनो भ्रमणा
रोग मटी जाय छे.
आ वात अपूर्व समजवा जेवी छे, आ समजीने अंतरमां तेनो यथार्थ
निर्णय करवो ते सम्यग्दर्शननुं कारण छे. खरुं तो आ ज करवा जेवुं छे, आ सिवाय
बीजुं तो बधुं थोथां छे, तेमां क्यांय आत्मानुं हित नथी.
–श्री मानस्तंभ–प्रतिष्ठा–महोत्सवना प्रवचनमांथी